Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 549
________________ 5102-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात (हिंसा) के त्याग रुप प्रथम महाव्रत को इस प्रकार काया से स्पर्शित करके उसका पालन किया जाता है, इस प्रकार प्रथम महाव्रत में साधु प्राणातिपात से निवृत्त होता है। IV टीका-अनुवाद : वह काल और वह समय याने दुःषमसुषम नाम का अवसर्पिणी काल का चौथा आरा... इस चौथे आरे के प्रान्त भाग के विशिष्ट काल-समय में भगवान् महावीर प्रभु हुए थे... इत्यादि... श्री वर्धमान (महावीर) स्वामीजी का च्यवन-कल्याणक याने प्राणत-देवलोक से अवतरण... याने देवानंद की कुक्षी में आगमन... उसके बाद शकेंद्र के आदेश से देवानंद की कुक्षी में से त्रिशलाजी की कुक्षी में संहरण... हस्तोतरा याने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा का शुभ योग हुआ था उस समय भगवान् महावीर प्रभुजी का देवलोक से च्यवन, देवानंदा की कुक्षी में से त्रिशलाजी की कुक्षी में संक्रमण, तथा जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक हुआ था... तीन ज्ञानवाले महावीर प्रभुजी का जीव च्यवन होगा यह बात जानतें थे और च्यवन हुआ यह बात भी जानते थे किंतु च्यवनकाल नही जानते थे, क्योंकि- च्यवनकाल बहुत ही सूक्ष्म काल है... इत्यादि... यावत् आरोग्यवाली त्रिशलादेवी ने आरोग्यवाले महावीर-पुत्र को जन्म दिया... इत्यादि... तथा जन्माभिषेक... बाल्यकाल... यौवनकाल... दीक्षाकाल और केवलज्ञान की प्राप्ति इत्यादि सूत्र से कही गई है... शेष सूत्र के पद सुगम है... अब प्राप्त-केवलज्ञानवाले श्री महावीर प्रभुजी, इंद्रभूति गौतम आदि शिष्यों को प्राणातिपातविरमणादि पांच महाव्रत एवं प्रत्येक महाव्रतों की पांच पांच भावनाएं जो कही थी, उनकी अब क्रमशः व्याख्या करतें हैं... अब प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं... ईर्यासमितिवाला साधु याने गमनागमन चलने के वख्त साधु साढे तीन हाथ (युग) प्रमाण भूमि को देखते हुए ईर्यासमिति में उपयोगवाला होकर चले... किंतु ईर्यासमिति के सिवा न चले, क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं कि- ईर्यासमिति के उपयोग बिना चलने से वह साधु प्राणी, जीव, भूत और सत्त्वों को पैरों-पाउ से अभिहत करता है, दूसरी और गिराता है, पीडा उत्पन्न करता है यावत् जीवित का विनाश करता है, अतः साधु ईयर्यासमितिवाला होकर ही चले...

Loading...

Page Navigation
1 ... 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608