Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 2-1-1-3-4 (351) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संखडि है, उस समय वह भिक्षु संखडि में जाने की अभिलाषा से उस ओर आहार लेने जाता है। वह अपने मन में सोचता है कि- जब मैं उस ओर के घरों में गोचरी करूंगा तो संखडि वाले मुझे देखकर आहार की विनती करेंगे और इस तरह मुझे सरस आहार प्राप्त होगा। इस भावना से भी साधु को संखडि में नहीं जाना चाहिए। इस तरह छल-कपट करने से उसका दूसरा एवं तीसरा महाव्रत भंग हो जाता है और मन में सरस आहार की अभिलाषा बनी रहने के कारण वह अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार भी ग्रहण नहीं कर सकेगा। अतः भिक्षु को आहार के बहाने संखडि की ओर नहीं जाना चाहिए। परन्तु, संखडि को छोड़कर अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करते हुए संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में 'सामुदाणियं, एसियं, वेसियं' इन तीन पदों का प्रयोग किया है। सामुदानिक गोचरी का अर्थ है- छोटे-बड़े या गरीब-अमीर के भेद को छोड़कर अनिन्दनीय कुलों से निर्दोष आहार को ग्रहण करना। एषणीय का अर्थ है- आधाकर्म आदि 16 दोषों से रहित आहार ग्रहण करना और वैषक का अर्थ-धात्री आदि 16 दोषों से रहित स्वीकार करे। वैषिक शब्द 'वेसिय', ब्येषित और वेष का भी बोधक है। CI संखडि के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। I सूत्र // 4 // // 351 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडी सिया, तंपि य गाम वा जाव रायंहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए। केवली बूया आयाणमेयं आइण्णाऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्कंतपुटवे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवेड, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवई, सीसेण वा सीसे संघट्टिपुटवे भवइ, काएण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ / दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुव्वेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुव्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुटवे भवेइ, अणेसणिजे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ, अण्णेसिं वा दिज्जमाणे पडिग्गाहियपुव्वे भवड़, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं आइण्णावमा णं संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए / / 351 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् ग्रामं वा यावत् राजधानी वा, अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सङ्खडिः स्यात् तमपि च ग्रामं वा यावत् राजधानी वा सलडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारये गमनाय / केवली ब्रूयात् आदानमेतत्