Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-2 (372) 103 कह दिया है कि वे मिट्टी से लिप्त बर्तन में रखे हुए अशनादि को ग्रहण न करें। तथा गृहपति कुल में प्रविष्ट हुआ भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार सचित्त मिट्टी पर रखा हुआ है तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार अप्काय पर रखा हुआ है तो उसे भी अप्रासुक जान कर स्वीकार न करे। इसी प्रकार अग्निकाय पर प्रतिष्ठित अशनादि चतुर्विध आहार को भी अप्रासुक जानकर उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। केवली भगवान कहते हैं कि यदि गृहस्थ भिक्षु के निमित्त अग्नि में ईन्धन डालकर अथवा प्रज्वलित अग्नि में से ईन्धन निकाल कर या अग्नि पर से भोजन को उतार कर, इस प्रकार से आहार लाकर दे तो साधु ऐसे अहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- पिठरक आदि में मिट्टी से लेपा हुआ तथाप्रकार के आहारादि को कोइक निमित्त से पश्चात्कर्म दोषवाला जानकर ऐसे चारों प्रकार के आहारादि को प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें.. क्योंकि- केवलज्ञानी कहतें हैं कि- यह कर्मबंध का कारण है... जैसे कि- कोइक गृहस्थ साधु के लिये मिट्टीवाले आहारादि के बरतन को खोलता हुआ पृथ्वीकाय का समारंभ करे... और अग्नि, वायु, वनस्पति एवं प्रसकाय का भी समारंभ करे.... तथा वह आहारादि देने के बाद भी शेष आहारादि के संरक्षण के लिये उस बरतन को पुनः लेप करता हुआ पश्चात्कर्म करे... * 'अतः साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञा एवं यह हेतु और यह कारण तथा यह उपदेश है कि- मिट्टी से लेपे हुए तथाप्रकार के आहारादि को प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- आहारादि सचित्त पृथ्वीकाय के उपर रहा हुआ है, ऐसे आहारादि को पृथ्वीकाय के संघट्टन के भय से प्राप्त होने पर भी अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करें... इसी प्रकार अप्काय (जल), और अग्नि के उपर रहे हुए आहारादि को गृहस्थ दे तो भी ग्रहण न करे... क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभुजी कहतें हैं कि- यह आदान याने कर्मबंध का कारण है... वह इस प्रकार- असंयत एसा गृहस्थ साधु को देनेके लिये अग्नि को उल्मुकादि से प्रज्वलित करके या अग्नि के उपर रहे हुए आहार के बरतन पिठरकादि को उतारकर या उस में से आहारादि लाकर साधु को दे... तब वहां साधुओं को पूर्व कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- ऐसे प्रकार के आहारादि को ग्रहण न करें...