Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 310 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कहेंगे... वह हि मैं तुम्हें कहता हूं... तथा यह भाषा द्रव्य अचित्त है एवं वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्शवालें हैं... तथा चय एवं उपचय इत्यादि विविध परिणामवाले भी होतें हैं ऐसा तीर्थकर परमात्माओं ने कहा है. यहां भाषा वर्णादि गुणधर्मवाली है ऐसा कहने से शब्द मूर्तद्रव्य है ऐसा कथन हुआ... और अमूर्त ऐसे आकाश का मूर्त स्वरुप शब्द गुण कैसे हो शकता है ? क्योंकिआकाश को वर्णादि गुण नहि है अतः आकाश नित्य है... जब कि- चय एवं उपचय धर्मवाले वर्णादि गुणवाले शब्द है अतः शब्द अनित्य है... तथा शब्द-द्रव्य के परिणाम भी विभिन्न प्रकार के होते हैं... अब शब्द कृतक याने कृत्रिम है ऐसा कहतें हैं... सूत्रसार : V प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- साधु को भाषा शास्त्र का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे व्याकरण का भली-भांति बोध होना चाहिए। जिससे वह बोलते समय विभक्ति, लिंग एवं वचन आदि की गलती न करे / इससे स्पष्ट होता है कि साधु को जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान के साथ व्यवहारिक शिक्षा का भी महत्व है। साधक को जिस भाषा में अपने विचार अभिव्यक्त करने है, उसे उस भाषा का परिज्ञान होना जरूरी है। यदि उसे उस भाषा का ठीक तरह से बोध नहीं है तो वह बोलते समय अनेक गलतिएं कर सकता है और कभी-कभी उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा उसके अभिप्राय से विरूद्ध अर्थ को भी प्रकट कर सकती है। इसलिए साधु को भाषा का इतना ज्ञान अवश्य होना चाहिए जिससे वह अपने भावों को स्पष्ट एवं शुद्ध रूप से अभिव्यक्त कर सके। भाषा के सम्बन्ध में दूसरी बात यह है कि साधु-साध्वी को निश्चयात्मक एवं संदिग्ध भाषा नहीं बोलनी चाहिए। इसका कारण यह है कि कभी परिस्थितिवश वह कार्य उसी रूप में नहीं हुआ तो साधु के दूसरे महाव्रत में दोष लगेगा। इसी तरह जिस बात के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है। उसे प्रकट करने से भी दूसरे महाव्रत में दोष लगता है। अतः साधु को बोलते समय पूर्णतया विवेक एवं सावधानी रखनी चाहिए। तीसरी बात यह है कि मनुष्य क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों के वश भी झूठ बोलता है। जिस समय मनुष्य के मन में क्रोध की आग धधकती है उस समय वह यह भूल जाता है कि मुझे क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए। क्रोधादि कषायों के समय भाषा के दोष एवं गुणों का सही ज्ञान नहीं रख सकता और उन मनोविकारों के वश वह साधु असत्य भाषा का भी प्रयोग कर देता है। इसलिए साधु को सदा इन कषायों के ऊपर उठकर बोलना चाहिए।