Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (486) 371 एषणया एष्यन्तं दृष्टवा परः वदेत्, आयुष्मन् ! श्रमण ! मुहूर्तकं यावत् आस्स्व, तावत् वयं अशनं वा उपकुर्मः वा उपस्कुर्मः, तत: तुभ्यं वयं हे आयुष्मन् ! सपानं सभोजनं पतद्ग्रहं दास्यामः, तुच्छके पतद्ग्रहे दत्ते श्रमणस्य न सुष्ठु साधु भवति, सः पूर्वमेव आलोकयेत्, हे आयुष्मति ! भगिनि ! न खलु मह्यं कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा, भोक्तुं वा०, मा उपकुरु मा उपस्कुरु, अभिकाङक्षसे मह्यं दातुं, एवमेव ददस्व, तस्मै सा एवं वदते परः अशनं वा, उपकृत्य उपस्कृत्य सपानं सभोजनं पतद्ग्रहं दद्यात् तथाप्रकारं० पतद्ग्रहं अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / स्यात् सः परः उपनीय पतद्ग्रहं निसृजेत्, सः पूर्वमेव० हे आयुष्मति ! भगिनि ! तव एव सत्कं पतद्ग्रहं अन्त:बहिः प्रतिलेखिष्यामि, केवली ब्रूयात्- आदानमेतत्० अन्तः पतद्ग्रहे प्राणिनः वा बीजानि वा हरितानि वा० अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् पूर्वमेव पतद्ग्रहं अन्त:बहिः पतद्ग्रहं० स-अण्डानि... सर्वे आलापका: भणितव्याः यथा वखैषणायाम् / नानात्वं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा स्नानादि यावत् अन्यतरत् वा तथाप्रकारं० स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव० आमृज्यात्, एवं खलु० सदा यतेल इति ब्रवीमि // 486 / / III सूत्रार्थ : संयम शील साधु या साध्वी जब कभी पात्र की गवेषणा करनी चाहें तो सब से पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि तूंबे का पात्र, काष्ठ का पात्र, और मिट्टी का पात्र साधु ग्रहण कर सकता है। और उक्त प्रकार के पात्र को ग्रहण करने वाला साधु यदि तरूण है स्वस्थ है स्थिर संहनन वाला है तो वह एक ही पात्र धारण करे, दूसरा नहीं और वह साधु अर्द्धयोजन के उपरान्त पात्र लेने के लिए जाने का मन में संकल्प भी न करे। यदि किसी गृहस्थ ने एक साधु के लिए प्राणियों कि हिंसा करके पात्र बनाया हो तो साधु उसे ग्रहण न करे। इसी तरह अनेक साधु, एक साध्वी एवं अनेक साध्वियों के सम्बन्ध में उसी तरह जानना चाहिए जैसे कि पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है। और शाक्यादि भिक्षुओं के लिए बनाए गए पात्र के सम्बन्ध में भी पिण्डैषणा अध्ययन के वर्णन की तरह समझना चाहिए। शेष वर्णन ववैषणा के आलापकों के समान समझना। अपितु जो पात्र नाना प्रकार के तथा बहुत मूल्य के हों-यथा लोहपात्र, अपुपात्र-कली का पात्र, ताम्रपात्र, सीसे, चान्दी और सोने का पात्र, पीतल का पात्र, लोह विशेष का पात्र, मणि, कांच और कांसे का पात्र एवं शंख और शृंग से बना हुआ पात्र, दांत का बना हुआ पात्र, पत्थर और चर्म का पात्र और इसी प्रकार के अधिक मूल्यवान अन्य पात्र को भी अप्रासुक तथा अनैषणीय जान कर साधु