Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-16 (436) 235 IV टीका-अनुवाद : ___ यहां पर भी पूर्ववत् सब कुछ जानीयेगा... किंतु यदि वह इक्कडादि संस्तारक को देखकर हि याचना करे, बिना देखे याचना न करें... इसी हि प्रकार तीसरी प्रतिमा को भी जानीयेगा... किंतु यहां इतना विशेष है कि- गच्छान्तर्गत याने स्थविर कल्पिक साधु और गच्छनिर्गत याने जिनकल्पिक साध यदि वसति दाता याने मकान मालिक हि संस्तारक दे, तो उसे ग्रहण करें, यदि ऐसा न हो तो वे साधु उत्कटुक आसन में रहें, या, निषण्ण याने पद्मासनादि के द्वारा हि पूरी रात बैठे रहें... इत्यादि // 435 // V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में जो तृण आदि रखे हुए हैं, उन्हें देखकर साधु उसकी याचना करे और यदि वह प्रासुक एवं निर्दोष हों तो वह उन्हें ग्रहण करे। यह दूसरी प्रेक्ष्य प्रतिमा है। तीसरी प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरना चाहता है उसी उपाश्रय में स्थित प्रासुक एवं निर्दोष तृण ही ग्रहण कर सकता है। यदि उपाश्रय में तृण आदि नहीं हैं तो वह उत्कुटुक या पद्मासन आदि आसनों से ध्यानस्थ होकर रात व्यतीत करे, परन्तु अन्य स्थान से लाकर तृण आदि न बिछाए। ये दोनों आसन कायोत्सर्ग से ही सम्बद्ध हैं। अतः इनका उल्लेख कायोत्सर्ग के लिए किया गया है। क्योंकि, कायोत्सर्ग का प्रमुख साधन आसन ही होता है। अतः प्रस्तुत उभय आसनों का उल्लेख करने का उद्देश्य यही है कि यदि तृतीय प्रतिमाधारी मुनि को उपाश्रय में संस्तारक प्राप्त न हो तो वह अपना समय ध्यान एवं चिन्तन-मनन में व्यतीत करे। * अब चतुर्थ प्रतिमा का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 16 // // 436 // अहावरा चउत्था पडिमा- से भिक्खू वा अहासंथऽमेव संथारगं जाइज्जा, तं जहापुढवि- सिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स अलाभे उपकुड्डए वा, विहरिज्जा, चउत्था पडिमा // 4 // II संस्कृत-छाया : अथाऽपरा चतुर्थी प्रतिमा- सः भिक्षुः वा० यथासंस्तृतं एव संस्तारकं याचेत, तद्यथा पृथिवीशिलां वा काष्ठशिलां वा यथासंस्तृतामेव, तस्य लाभे सति संवसेत्, तस्य अलाभे उत्कटुकः वा विहरेत्, चतुर्थी प्रतिमा // 4 //