Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-5 (513) 481 नियुक्तिकार ने चौथे स्वर्ग का उल्लेख चतुर्थ जाति के (वैमानिक) देवों के रुप में किया है, तब तो आचारांग से विपरीत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि 12 वां स्वर्ग वैमानिक देवों में ही समाविष्ट हो जाता है आगम में स्पष्ट रुप से 12 वें स्वर्ग का उल्लेख किया गया है। अतः आगम का कथन ही प्रामाणिक माना जा सकता है। . अब भगवान के दीक्षा महोत्सव का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 5 // // 513 // तेणं कालेणं समणे भ० नाये नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाई विदेहंसित्ति कटु अगारमज्झे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं चिच्चा सुवण्णं चिच्चा बलं चिच्चा वाहणं चिच्चा धणकणगरयणसंतसारसावइज्जं विच्छडित्ता विग्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसु णं दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुने, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तरा जोग० अभिणिक्खमणाभिप्पाए यावि हुत्था // 513 // II संस्कृत-छाया : तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् महावीरः ज्ञातः ज्ञातपुत्रः ज्ञातकुलनिवृत्तः विदेहः विदेहदत्त: विदेहजात्य: विदेहसुकुमाल: त्रिंशत् वर्षाणि विदेहे इति कृत्वा अगारमध्ये उषित्वा अम्बा-पित्रोः कालगतयोः देवलोकमनुप्राप्तयोः सतो: समाप्तप्रतिज्ञः त्यक्त्वा हिरण्यं त्यक्त्वा सुवर्णं त्यक्त्वा बलं त्यक्त्वा वाहनं त्यक्त्वा धनकनक-रत्न-सत्सारस्वापतेयं विच्छर्घ विगोप्य विश्राण्य दातृषु दानं दत्वा परिभाज्य संवत्सरं दत्त्वा च यः असौ हेमन्तस्य प्रथम: मास: प्रथमः पक्षः मृगशीर्षकृष्ण-बहुल:, तस्य च मृगशीर्षबहुलस्य दशमी-पक्षेण हस्तोत्तराभिः योगमुपागतेन अभिनिष्क्रमणाभिप्रायः च अभवत // 593 // III सूत्रार्थ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर प्रसिद्ध ज्ञात पुत्र, ज्ञात कुल में चन्द्रमा के समान, वज्रऋषभनाराच संहनन के धारक, त्रिशला देवी के पुत्र, त्रिशला माता के अंगजात, घर में सुकुमाल अवस्था में रहने वाले तीस वर्ष तक घर में निवास करके माता पिता के देव लोक हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से हिरण्य, स्वर्ण, बल और वाहन, धन-धान्य, रत्न आदि प्राप्त वैभव को त्यागकर, याचकों को यथेष्ट दान देकर तथा