Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 296 2-1-3-3-3 (463) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किं इतः प्रतिपथि पश्यत यवसानि वा यावत् तस्य वा विरूपरूपं संनिविष्टं, तस्य आचक्षीत यावत् गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा प्राति० यावत् हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कियन्तं इत: ग्रामं वा पावत् राजधानी वा ? तस्य आचक्षीत यावत् गच्छेत् / स: भिक्षुः वा ग्रामा० गच्छन् अन्तरा प्रातिपथिका: हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कियान् इतः ग्रामस्य नगरस्य वा यावत् राजधान्याः वा मार्गः ? तस्य आचक्षीत, तथैव यावत् गच्छेत् // 463 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को विहार करते हुए यदि मार्ग के मध्य में सामने से कोई पथिक मिले और वह साधु से कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में मनुष्य को, मृग को, महिष को, पशु को, पक्षी को, सर्प को और जलचरो को जाते हुए देखा है ? यदि देखा हो तो बतलाओ वे किस ओर गए हैं ? साधु इन प्रश्नों का कोई उत्तर न दे और मौन भाव से रहे, तथा उसके उक्त वचन को स्वीकार न करे, तथा जानता हुआ भी यह न कहे कि मैं जानता हूं। तथा व्यामानुयाम विचरते हुए साधु को मार्ग में वे पथिक यह पूछे कि आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जल से उत्पन्न होने वाले कन्दमूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित, एवं जल के स्थान और प्रज्वलित हुई अग्नि को देखा है तो बताओ कहां देखा है ? इसके उत्तर में भी साधु कुछ न कहे अर्थात् चुप रहे। तथा ईर्या समिति पूर्वक विहार चर्या में प्रवृत्त रहे और यदि यह पूछे कि इस मार्ग में धान्य और तृण-घांस कहां पर है ? तो इस प्रश्न के उत्तर में भी मौन रहे। यदि वे पूछे कि आयुष्मन् श्रमण ! यहां से ग्राम यावत् राजधानी कितनी दूर है ? तथा यहां से व्याम नगर यावत् राजधानी का मार्ग कितना शेष रहा है ? इन का भी उत्तर न दे तथा जानता हुआ भी मैं जानता हूं ऐसा न कहे, किन्तु मौन धारण करके ईर्यासमिति पूर्वक अपना रास्ता तय करे। IV टीका-अनुवाद : मार्ग में जाते हुए उस साधु को कोइक मुसाफिर ऐसा कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में आते हुए कोइ मनुष्य को देखा था ? इस प्रकार पुछते हुए उस मुसाफिर की मौन रहकर उपेक्षा करें... अथवा जानते हुए भी कहे कि- मैं नहि जानता... इत्यादि... तथा व्यामांतर जाते हुए उस साधु को मार्ग में सामने से आ रहा कोइक मुसाफिर पुछे तब जल में उत्पन्न हुए कंदमूलादि का स्वरुप न कहें... जानते हुए भी कहे कि- मैं नहि जानता हूं... इसी प्रकार यवस-धान्यादि सूत्र में भी जानीयेगा... तथा गांव आदि कितने दूर