Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-2-2-14 (419) 209 III सूत्रार्थ : ___इस संसार में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत से श्रद्धालु व्यक्ति हैं, जिन्होंने साधु का आचार तो सम्यक्तया नहीं सुना, केवल उपाश्रय दान के स्वर्गादि फल को सुना है। वे साधु के लिए 6 काय का समारम्भ करके लोहकार शाला आदि स्थान-मकान बनाते हैं। यदि साधु उनमें ज्ञात होने पर भी ठहरता है तो वह द्रव्य से साधु और भाव से गृहस्थ है, अर्थात् साधु का वेष होने से साधु और षट्काय के आरम्भ की अनुमति आदि से युक्त होने के कारण भाव से गृहस्थ जैसा है। अतः हे शिष्य ! इस क्रिया को महासावध क्रिया कहते हैं। IV टीका-अनुवाद : यहां कोइक गृहस्थ आदि किसी एक श्रमणसाधर्मिक के लिये पृथ्वीकाय आदि के संरंभ समारंभ एवं आरंभ से या कोई भी एक से विभिन्न प्रकार के भारे पाप कर्मो के आचरण के द्वारा जैसे कि- आच्छादन, लेपन, तथा संस्तारक के लिये या द्वार को ढांकने के लिये इत्यादि कारणों को लेकर पहले शीतल जल का छंटकाव कीया हो या अग्नि जलाया हो. तो ऐसी वसति (मकान) में स्थान-शय्या-निषद्यादि करनेवाला साधु दो पक्ष के कर्मो का आसेवन करता है... जैसे कि- प्रव्रज्या में रहकर आधाकर्मवाली वसति में रहने के कारण से गृहस्थपना प्राप्त होने का दोष और राग-द्वेष का दोष... इस स्थिति में साधु को ईर्यापथ एवं सांपरायिक कर्मबंध होता है... इत्यादि दोषों के कारण से ऐसी वसति महासावधक्रिया नाम के दोषवाली होती है... अतः अकल्पनीय है... अब अल्पक्रियाभिधान वसति का स्वरुप कहतें है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जो उपाश्रय-मकान साधु के उद्देश्य से बनाया गया है और साधु के उद्देश्य से ही उसको लीप-पोत कर साफ-सुथरा बनाया है और छप्पर आदि से आच्छादित किया है तथा दरवाजे आदि बनवाए हैं और गर्मी में ठण्डे पानी का छिड़काव करके मकान को शीतल एवं शरद् ऋतु में आग जलाकर गर्म किया गया है तो ऐसे मकान में साधु को नहीं ठहरना चाहिए। यदि साधु जानते हुए भी ऐसे मकान में ठहरता है तो उसे महासावध क्रिया लगती है। और ऐसे मकान में ठहरने वाला केवल वेष से साधु है, भावों से वह साधु नहीं। क्योंकि, उसमें साधु के लिए 6 काय के जीवों का आरंभ समारंभ हुआ है। इसलिए सूत्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'दुपक्खं ते कम्म सेवंति।' आचार्य शीलांक ने प्रस्तुत पद की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'ते द्विपक्षं कर्मासेवन्ते तद्यथाप्रव्रज्यायामाधाकर्मिकवसत्यासेवनाद् गृहस्थत्वं च रागद्वेषं च इर्यापथं साम्परायिकं च।'