Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 206 2-1-2-2-12 (417) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महावज्जकिरियावि भव // // || 417 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा सन्ति एके श्राद्धाः भवन्ति, तेषां च आचारगोचरान् यावत् तान् रोचमानैः बहून् श्रमण ब्राह्मण यावत् वनीपकान् गणयित्वा समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा, उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु० इयं आयुष्मन् ! महावय॑क्रिया च अपि भवति / / 6 / / / / 417 // III सूत्रार्थ : इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालू गृहस्थ हे जो साधु (जैन मुनि) के आचार विचार को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, परन्तु साधु को बसती दान देने से स्वर्गादि फल को सम्यक्तया जानते हैं और उस पर श्रद्धा-विश्वास तथा अभिरुचि रखते हैं। उन गृहस्थों ने बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिखारियों को गिन गिन कर तथा उनका लक्ष्य करके लोहकार शाला आदि विशाल भवन बनाए हैं। जो पूज्य मुनिराज तथाप्रकार के छोटे बड़े और गृहस्थों द्वारा सहर्ष भेंट किए गए उक्त लोहकार शाला आदि गृहों में आकर ठहरते हैं तो हे आयुष्मन् शिष्य ! यह उनके लिए महावर्ण्य क्रिया होती है, अर्थात् उन को यह सदोष क्रिया लगती है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु श्रमण आदि के लिये बनाये हुए जो कोइ वसति (घर) में यदि साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि करे तब, उन्हे महावाभिधान नाम का दोष लगता है, अतः महावाभिधान दोषवाली वसति साधुओं के लिये अकल्पनीय है... किंतु विशुद्धकोटि भी है... अब सावधाभिधान वसतिका स्वरुप कहतें है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- कुछ श्रद्धालु लोग साध्वाचार से अनभिज्ञ हैं, परन्तु वे साधु को मकान का दान देने में स्वर्ग आदि की प्राप्ति के फल को जानते हैं और इस कारण उन्होंने श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर उनके ठहरने के लिए मकान बनाए हैं। साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, यदि वह ऐसे मकानों में ठहरता है तो उसे महावर्ण्य दोष लगता है। इस पर यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि गृहस्थ ने शाक्य आदि श्रमणों के लिए मकान बनाया है और वे उस मकान में ठहर भी चुके हैं, तो फिर साधु उस