Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-9/10 (429/4 30) 225 पण्णस्स जाव० तहप्प० उव० नो ठा० // 428 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् पुनः० खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यस्य गात्रं तैलेन वा नवनीतेन वा घृतेन वा वसया वा अभ्यञ्जन्ति वा म्रक्षयन्ति वा, न प्रज्ञस्य यावत् तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानादि कुर्यात् // 428 / / I सूत्र // 9 // // 429 // से भिक्खू वा० से जं पुण० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सिणाणेण वा क० लु० चु० प० आघंसंति वा पघंसंति वा उव्वलंति वा उव्वमिति वा नो पण्णस्स० // 429 / / II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स: यत् पुनः इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यस्य गात्रं स्नानेन, वां क० लु० चू० प० आघर्षयन्ति वा प्रघर्षयन्ति वा उद्वलयन्ति वा उद्वर्तयन्ति वा न प्रज्ञस्य० // 429 // I. सूत्र // 10 // // 430 // से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खलु गाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदग० उसिणो० उच्छो० पहोयंति सिंचंति सिंणायंति वा नो पण्णस्स जाव नो ठाणं० // 430 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात्, इह खलु गृहपतिभार्या वा यावत् कर्मकरी वा अन्योऽन्यस्य गात्रं शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा उत्क्षालयंति वा प्रधोवन्ति वा सिधन्ति वा स्नापयन्ति वा न प्रज्ञस्य यावत् न स्थानं० // 40 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गृहस्थ के उपाश्रय को जाने, जैसे कि जिस उपाश्रय-वसती में, गृहपति और उसकी स्त्री यावत् दास दासिएं परस्पर एक दूसरे को आक्रोशती-कोसती हैं, मारती और पीटती यावत् उपद्रव करती हैं। तथा परस्पर एक दूसरी के शरीर को तैल से, मक्खन से, घी से और बसा से मर्दन करती हैं और एक दूसरे के शरीर को पानी से, कर्क से, लोघ्र से, चूर्ण से और पद्मद्रव्य से साफ करती हैं मैल उतारती हैं तथा उबटन करती हैं और एक