Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-5 (474) 335 निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी समित्या संयतः भाषां भाषेत, एवं खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 474 // III सूत्रार्थ : क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करने वाला, एकान्त निरवद्य भाषा बोलने वाला, विचार पूर्वक बोलने वाला शनैः 2 बोलने वाला और विवेक पूर्वक बोलने वाला संयत साधु या साध्वी भाषा समिति से युक्त संयत भाषा का व्यवहार करे। यही साधु और साध्वी का समय आचार है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. क्रोधादि का त्याग करके इस प्रकार बोलें... जैसे किवह साधु सोच-विचार करके निष्ठाभाषी हो, निशम्यभाषी हो, तथा अत्वरित याने जल्दी जल्दी न बोलें किंतु स्पष्ट एवं धीरे धीरे से बोलें तथा विवेकभाषी हो... अर्थात् साधु भाषासमिति के उपयोग से बोलें क्योंकि- ऐसी स्थिति में हि साधु का सच्चा साधुपना है... और यह साधुपना हि साधु का सर्वस्व (संपत्ति) है... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है एवं ब्रवीमि याने तीर्थकर प्रभु श्री वर्धमानस्वामीजी के मुख से जैसा सुना है वैसा मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबु / तुम्हें कहता हूं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भाषा अध्ययन का उपसंहार करते हुए बताया गया है कि साधु को क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके भाषा का प्रयोग करना चाहिए और उसे बहुत शीघ्रता से भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि, वह क्रोधादि विकारों के वश झूठ भी बोल सकता है और अविवेक एवं शीघ्रता में भी असत्य भाषण का होना सम्भव है। अतः विवेकशील एवं संयम निष्ठ साधक को कषायों का त्याग करके, गम्भीरतापूर्वक विचार करके धीरे-धीरे बोलना चाहिए। इस तरह साधु को सोच विचार-पूर्वक निरवद्य, निष्पापकारी, मधुर, प्रिय एवं यथार्थ भाषा का प्रयोग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां चतुर्थ-भाषाज्ञाताध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं च चतुर्थमध्ययनम् // 卐g