Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 246 2-1-2-3-24 (444) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कम हवा वाला स्थान प्राप्त हो, इसी प्रकार धूलियुक्त या धूलिरहित, अथवा डांस मच्छर युक्त या उसके बिना की शय्या मिले, इसी भांति सर्वथा गिरी हुई, जीर्ण-शीर्ण अथवा सुदृढ़ शय्या मिले या उपसर्ग युक्त उपसर्ग रहित शय्या मिले, इस सब प्रकार की शय्याओं के प्राप्त होने पर वह उनमें समभाव से निवास करे। किन्तु मानसिक दुःख एवं खेद का बिल्कुल अनुभव न करे। यही भिक्षु का सम्पूर्ण भिक्षु भाव है। कि जो सर्व प्रकार से ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर तथा सदा समाहित होकर विचरने का यत्न करे। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु जब तक तथाप्रकार की वसति (उपाश्रय) विद्यमान होने पर ग्रहण की हो, और वहां कोइक सम या विषम इत्यादि प्रकार की वसति प्राप्त हुइ हो तब उस वसति (उपाश्रय) में समचितवाला होकर रहें... परंतु वहां जरा भी व्यलीकादि याने निंदा-दोष प्रगट न करें... यह हि उस साधु का साधुपना है... कि- सभी आवश्यक क्रियानुष्ठान के साथ सदा यतना करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को हर परिस्थिति में समभाव रखना चाहिए। चाहे उसे सम शय्या मिले या विषम मिले, सर्दी-गर्मी के अनुकूल स्थान मिले या प्रतिकूल मिले, डांस-मच्छर एवं धूल से युक्त स्थान मिले या इनसे रहित मिले। कहने का तात्पर्य यह है किअनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों अवस्थाओं में उसे समभाव रखना चाहिए। अनुकूल स्थान मिलने पर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए और प्रतिकूल मिलने पर द्वेष नहीं करना चाहिए। साधु को राग-द्वेष से ऊपर उठकर विचरना चाहिए। वस्तुतः यही साधुता है और इस पथ पर गतिशील साधक ही अपनी साधना में सफल होकर साध्य को प्राप्त कर सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां द्वितीयथय्यैषणाध्ययने तीयः उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं द्वितीयं शय्यैषणाध्ययनम् / / 卐卐卐