Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-1 (509) 465 क्षेत्र से-शीत-रुक्ष आदि क्षेत्र काल से- शीत-उष्ण आदि काल भाव से- मैं अभी ग्लान हूं अतः इस प्रकार का तप कर सकता हूं... इत्यादि प्रकार से द्रव्यादि का चिंतन करके यथाशक्ति तप करना चाहिये... क्योंकितत्त्वार्थाधिगम सूत्र का यह वचन है कि- यथाशक्ति त्याग-तपश्चर्या करनी चाहिये... नि. 344 तथा अनशनादि तपश्चर्या में बल-वीर्य के अनुसार उत्साह करना चाहिये और ग्रहण कीये गये तपोधर्म का निरतिचार पालन करना चाहिये... कहा भी है कि- तीर्थकर-पुरुष भी गृहवास का त्याग करने के बाद अनगार होने पर चार ज्ञानवाले होतें हैं देवता भी उनका आदर-सत्कार पूजा करतें हैं और निश्चित ही मुक्ति पानेवाले हैं तो भी बलवीर्य के अनुसार सभी प्रकार के पुरुषार्थ के साथ तपश्चर्या में उद्यम करतें हैं... तो फिर अन्य शेष मनुष्यों के लिये तो कहना ही क्या ? अर्थात् अन्य शेष मनुष्यों को तो कर्मो से मुक्ति पाने के लिये अवश्यमेव यथाशक्ति तपश्चर्या करनी ही चाहिये... इत्यादि प्रकार से तपोभावना करनी चाहिये। इसी प्रकार पांच इंद्रियां एवं मन के निग्रह स्वरुप संयम में तथा तपश्चर्या के निर्वाह में समर्थ ऐसे वज्रऋषभनाराच आदि संघयण के विषय में भी भावना-चिंतन करना चाहिये... अब वैराग्यभावना अनित्यत्वादि भावना स्वरुप है... वह इस प्रकार- 1. अनित्यता, 2. अशरणता, 3. संसारभावना, 4. एकत्व, 5. अन्यत्व, 6. अशुचिभावना, 7. आश्रव, 8. संवर, 9. निर्जराभावना, 10. लोकस्वरुप, 11. धर्मस्वाख्यात एवं धर्मतत्त्वचिंतन तथा 12. बोधिदुर्लभभावना... इत्यादि भावनाएं अनेक प्रकारसे कही गइ है किंतु यहां प्रस्तुत ग्रंथ में तो चारित्रभावना का ही अधिकार है अंब नियुक्ति-अनुगम के बाद सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये... I सूत्र // 1 // // 509 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे यावि होत्था-तं जहा- हत्थुत्तराहिं चुए, चइत्ता गल्भं वक्कंते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गल्भं साहरिए,