Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-3 (367) 91 न उदकाइँण सस्निग्धेन शेषं तत् चैव एवं- सरजस्क: उदकाः सस्निग्धः मृत्तिका ऊषः हरताल: हिङ्गलोकः मन:शिला अञ्जनं लवणं। गेसकः वर्णिका सेटिका सौराष्टिका कुक्कुसः उत्कृष्टसंसृष्टेन अथ पुनः एवं जानीयात्- न असंसृष्टः संसृष्टः तथा प्रकारेण संसृष्टेन हस्तेन वा, अशनं वा, प्रासुकं यावत् प्रतिगृह्णीयात् || 367 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गये साधु और साध्वी गृह-स्वामी को, उसकी पत्नीको, पुत्रको, पुत्री को, पुत्रवधु को, दास-दासी को, कर्मचारी को यावत् कर्मचारिणीको भोजन करते हुए देखकर प्रथम कहते हैं कि- हे आयुष्मन् या हे आयुष्यमती ! इसमें से थोड़ा आहार मुझे दे सकते है क्या ? ऐसे कहनेवाले मुनिको भोजन करनेवाले पुरुष या स्त्री हाथ, थाली, चम्मच या अन्य पात्र सचित्त या अचित्त (उष्ण) जल से धोंने लगे या विशेष शुद्धिपूर्वक मांझने लगे तो साधु प्रथम से ही कह दे कि- हे आयुष्मन् ! आप हाथ यावत् पात्र को कच्चे या उष्ण जल से धोवे नहीं या विशेष धोवे नहीं (मांझकर धोवे नहीं) मुझे देने की चाहना करते हो तो ऐसे ही देवें। साधु के ऐसा कहने पर भी यदि गृहस्थ हाथ यावत् पात्र को सचित्त या अचित्त जल से धोकर या विशेष धो-कर देवे तो साधु ग्रहण न करे। पूर्वकृत कर्मवाले हाथ आदि से अशनादि ग्रहण करना अप्रासुक है, अनेषणीय है / 'लाभ होने की सम्भावना हो तो भी न ले ! कदाचित्, साधु को प्रतीत होवे कि- मुझे भिक्षा देने के लिए नहीं परंतु अन्य कारण से दाता के हाथ आदि गिले हैं. फिर भी उस हाथ से दिये जाने वाले अशनादि को ग्रहण न करे। उसकी प्रकार स्निग्धहाथ, सचित्त रजःवाला हाथ, और जिसमें से पानी टपक रहा है ऐसा हाथ या गिला हाथ आदि से तथा सचित्त मिट्टी, खार, हडताल, हिंगलो, मनसिल, अंजन, नमक, गेलं, पीली मिट्टी, सफेद मिट्टी, फटकड़ी, ताजा (गीला) आटा, अथवा ताजे कूटे हुए चने, चावल आदिका आटा, या कण की आदि कोई पण सचित्त पदार्थ से लिप्त हाथ आदि से अशन आदि ग्रहण न करे। किंतु यदि ऐसा जाने कि- दातार के हाथ आदि अचित्त चीजों से लिप्त है तो वैसे हाथ आदि से दिया जानेवाला अशन आदिको प्रासुक जानकर तथा ऐषणिक जानकर ग्रहण करे || 367 // IV टीका-अनुवाद : ..... अब वह साधु वहां गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर किसी घर के स्वामी आदि को भोजन करते हुए देखकर ऐसा सोचे कि- यह गृहस्थ या उनकी भार्या या कर्मकरी (सेविका) भोजन करतें हैं... तब विचार करके और नाम लेकर याचना करे कि- हे गृहपति ! हे भगिनि ! क्या आप मुझे इस आहारादि में से कुछ भी आहारादि देना चाहते हो ? यदि ऐसा कह नही सकतें और कारण होने पर पुनः ऐसा कहे तब याचना करते हुए उस साधु को देखकर वह गृहस्थ कभी हाथ पात्र चम्मच या बरतन शीतल जल (अप्काय) से या तीन उकाला न हुआ