Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-2 (378) 115 इस प्रकार उद्गम के सोलह दोषों में से कोई भी दोष हो तब ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में 21 प्रकार के प्रासुक पानी का उल्लेख किया गया है। उसमें आम फल आदि के धोवन पानी के विषय में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ आम आदि को धोने के पश्चात् उस पानी को छान रहा है और उसमें रहे हुए गुठली छाल एवं बीज आदि को निकाल रहा है, तो साधु को उक्त पानी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि वह वनस्पतिकायिक (बीज, गुठली आदि) जीवों से युक्त होने के कारण निर्दोष एवं ग्राह्य नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में ‘अस्थि' शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि आम के साथ उसका प्रयोग होने के कारण उसका गुठली अर्थ ही घटित होता है। द्राक्षा की अपेक्षा त्वक्छाल, अनार आदि की अपेक्षा से बीज शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि आम आदि फलों का धोया हुआ पानी एवं रस यदि गुठली, बीज आदि से युक्त है और उसे बांस की बनाई गई टोकरी या गाय के बालों की बनाई गई छलनी या अन्य किसी पदार्थ से निर्मित छलनी या वस्त्र आदि से एक बार या एक से अधिक बार छानकर तथा उसमें से गुठली, बीज आदि को निकाल कर दे तो वह पानी या रस साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि इस तरह का पानी उद्गमादि दोषों से युक्त होता है। अतः साधु को ऐसा जल अनेषणीय होने के कारण ग्रहण नहीं करना चाहिए। - अपने स्थान में स्थित साधु को भौतिक आहारादि पदार्थों से किस तरह अनासक्त रहना चाहिए, इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.. I सूत्र // 2 // // 378 // * से भिक्खू वा आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावड़गिहेसु वा, परियावसहेसु वा अण्णगंधाणि वा पाणगंधाणि वा, सुरभिगंधाणि वा आघाय से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए गिद्धे गड्ढिए अज्झोववण्णे अहो गंधे, नो गंधमाघाइजा / / 378 // // संस्कृत-छाया : . सभिक्षुः वा आगन्तारेषु वा, आरामागारेषु वा, गृहपतिगृहेषु वा, पर्यावसथेषु वा, अन्नगन्धान् वा पानगन्धान् वा सुरभिगन्धान् वा आघ्राय आघ्राय सः तत्र आस्वादन