Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-3 (392) 147 श्रुत्वा निशम्य स: पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! न खलु मे कल्पते बहु० प्रतिगृ० अभिकाङ्क्षसि मह्यं दातुं यावन्मानं तावन्मानं पुद्गलं देहि, मा च अस्थिकानि, तस्य सः एवं वदतः परः अभ्याहृत्य अन्तः प्रतिग्रहके बहु० परिभज्य निहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं प्रतिग्रहं परहस्ते वा परपादे वा अप्रा० न०। सः आहृत्य (अकरमात्) प्रतिगृहीत: ग्राहितः ? स्यात्, तं न इति वदेत् न इति वदेत्, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्रम्य च अथ आरामे उपाश्रये वा अल्पाण्डं वा यावत् संतानकं मांसं मत्स्यं भुक्त्वा अस्थिकानि कण्टकान् च गृहीत्वा, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्र म्य च अथ दग्धस्थण्डिले वा यावत् प्रमृज्य प्रमृज्य परिष्ठापयेत् / / 392 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर पर आहार आदि के लिए गया हुआ भिक्षु, इक्षु खड आदि जो छिले हुए हैं एवं सब प्रकार से अचित्त हैं, तथा मूंग और बल्ली आदि की फली, जो किसी निमित्त से अचित्त हो चुकी है, परन्तु उसमें खाद्य भाग स्वल्प है और फैंकने योग्य भाग अधिक है तो इस प्रकार का आहार मिलने पर भी• अकल्पनीय जानकर ग्रहण न करे। फिर वह भिक्षु किसी गृहस्थ के यहां गया हुआ बहुत गुठलियों युक्त फल के टुकडे को और बहुत कांटों वाली मत्स्य नामक वनस्पति को भी उपर्युक्त दृष्टि के कारण ग्रहण न करे। यदि गृहस्थ उक्त दोनों पदार्थों की निमंत्रणा करे तो मुनि उसे कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! यदि तू मुझे यह आहार देना चाहता है तो उक्त दोनों पदार्थों का खाद्य भाग ही मुझे दे दे, शेष गुठली तथा कांटे मत दे। . यदि शीघ्रता में गृहस्थ ने उक्त पदार्थ मुनि के पात्र में डाल दिए हों तो गृहस्थ को भला बुरा न कहता हुआ वह मुनि बगीचे या उपाश्रय में आए और वहां एकान्त स्थान में जाकर खाने योग्य भाग वापर ले और शेष गुठली तथा कांटों को ग्रहण कर एकान्त अचित्त एवं प्रासुक स्थान पर परठ छोड़ दे। IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि- जैसे कि- शेलडी के पर्वमध्य है या पर्ववाली शेलडी के टुकडे है, या पीली हुइ शेलडी के छिलके (चूर) है, या शेलडी का अग्रभाग है या शेलडी की लंबी शाखा है, या उसका एक टुकड़ा है, अथवा मुग आदि की अचित्त फली है, या वली आदि की फलीओं का पाक है, तब ऐसे आहारदि कि- जो खाने में थोडा और फेंकने में ज्यादा होतें हैं, अतः साधु ग्रहण न करें... इसी प्रकार मांस-सूत्र को