Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 252 2-1-3-1-2 (446) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागमं हिन्दी प्रकाशन इससे स्पष्ट होता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक विहार नहीं करना चाहिए। यदि कभी आषाढ़ी पूर्णिमा से पूर्व ही वर्षा प्रारम्भ हो जाए और चारों तरफ हरियाली छा जाए तो साधु को उसी समय से एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिए और वर्षावास के लिए आवश्यक वस्त्र आदि ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि, वर्षावास में वस्त्र आदि ग्रहण करना नहीं कल्पता, इसलिए साधु उनका वर्षावास के पूर्व ही संग्रह कर ले। वर्षावास का प्रारम्भ चन्द्रमास से माना जाता है। अतः वह श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को समाप्त होता है। शाकटायन ने भी आषाढ़, कार्तिक एवं फाल्गुन की पूर्णिमा को चातुर्मास की पूर्णिमा स्वीकार किया है। उसने भी वर्ष में तीन चातुर्मासी को मान्य किया है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साधु को वर्षाकाल में विहार नहीं करना चाहिए। परन्तु, वर्षावास के लिए साधु को किन बातों का विशेष ख्याल रखना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... / I सूत्र // 2 // // 446 // से भिक्खू वा० सेज्जं गाम वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय० नो महई विहारभूमी, नो महई वियारभूमी, नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, जत्थ बहवे समण वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइण्णा वित्ती नो पण्णस्स निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा नो वासावासं उवल्लिइज्जा। से भिक्खू० से जं० गाम वा जा राय० इमंसि खलु गांमंसि वा जाव महई विहारभूमी, महई वियार० सुलभे जत्थ पीढ, सुलभे फा0 नो जत्थ बहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइण्णा वित्ती जाव रायहाणिं वा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा || 446 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत्० ग्रामं वा यावत् राजधानी वा अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा, न महती विहारभूमी वा न महती विचारभूमी, न सुलभः पीठफलकशय्यासंस्तारकः न सुलभः प्रासुक: उञ्छः यथा-एषणीयः, यत्र बहवः श्रमण वनीपका: उपागता: वा उपागमिष्यन्ति वा, अत्याकीर्णा वृत्तिः, न प्रज्ञस्य निष्क्रमणं यावत् चिन्तायां, सः एवं ज्ञात्वा तथाप्रकारं ग्रामं वा नगरं वा यावत् राजधानी वा, न वर्षावासं उपलीयेत्।