Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-4 (347) 41 IV टीका-अनुवाद : ' वह साधु उत्कृष्ट से अर्ध योजन प्रमाण क्षेत्र में जहां, अनेक अस एवं स्थावर जीवों की विराधना होती हो ऐसी संखडि को जानकर संखडि में जाने की इच्छा से वहां जाने का चिंतन न करे, अर्थात् वहां न जायें... किंतु जब ग्रामानुयाम विहार की परिपाटि से वहां जाने का पहले से ही प्रयाण हो गया हो, और वहां संखडि है ऐसी जानकारी प्राप्त हो तब यदि पूर्व दिशा में संखडि हो तो संखडि का अनादर करता हुआ पश्चिम दिशा में जाएं और पश्चिम दिशा में संखडि हो तो पूर्व दिशा में जाएं... इसी प्रकार यदि दक्षिण दिशा में संखडि हो तो उत्तर दिशा में जायें और उत्तर दिशा में संखडि हो तो दक्षिण दिशा में जाएं... यहां सारांश यह है कि- जहां संखडि हो वहां न जाएं... ___ यह संखडि गांव में हो या (नगर) शहर में हो जहां व्याम्य धर्मो की बहुलता हो वह व्याम एवं जहां कर न हो वह नकर याने नगर... तथा धूलि के प्राकार याने कोटवाले खेट, कर्बट याने तुच्छ नगर... तथा जहां चारों ओर आधा योजन दूर गांव हो वह मडंब, तथा जहां जल मार्ग और स्थलमार्ग में से कोई भी एक मार्ग प्रवेश एवं निर्गमन के लिये हो वह पत्तन, तथा तामादि धातुओं की उत्पत्तिस्थान को आकर कहते हैं, तथा जहां जलमार्ग एवं स्थलमार्ग दोनों हो वह द्रोणमुख तथा वणिग लोगों का जो स्थान वह नैगम... तथा जो तीर्थस्थान हो .वह आश्रम... तथा जहां राजा का निवास हो वह राजधानी, तथा जहां बहुत ही करियाणे का प्रवेश हो वह संनिवेश... अतः ऐसे स्थानो में संखडि को जानकर संखडि की प्रतिज्ञा से वहां न जाएं... जाने का विचार भी न करें... क्योंकि- केवलज्ञानी कहतें हैं कि- यह आदान याने कर्मबंध का कारण है. अथवा संखडि में जाना यह दोषों का घर है... क्योंकि- जहां जहां संखडि हो वहां वहां जाने की इच्छा से जो साधु जाता है, उस साधु को कोई भी एक दोष लगता है... वे दोष यह हैं... 1. आधाकर्म, 2. औद्देशिक 3. मिश्रजात 4. खरीदा हुआ (क्रीत), उद्यतक याने उच्छीना लिया हुआ, आच्छेद्य याने बलात्कार से ले लिया गया हो, तथा अनिसृष्ट याने आहारादि के स्वामी ने दान देने की अनुमति न दी हो, तथा अभ्याहृत इत्यादि दोषों में से कोई भी दोषवाले आहारादि को साधु न वापरें... अर्थात् उन आहारादि का भोजन न करें... क्योंकिवह संखडि को करनेवाला गृहस्थ "साधु को दान देना चाहिए" ऐसा सोचकर आधाकर्मादि दोष उत्पन्न करे, अथवा जो साधु आहारादि की लोलुपता से संखडि में जाने की इच्छा से वहां जाता है तब वह साधु आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि का भोजन करे... तथा संखडि को देखकर वहां आनेवाले साधुओं को देखकर असंयत गृहस्थ या प्रकृतिभद्रक मनुष्य साधुओं को आते हुए देखकर छोटे द्वार को बडा द्वार करे, अथवा कार्य की अपेक्षा से व्यत्यय याने इससे विपरीत भी करें... तथा सम वसति को श्रावकों के आने के भय से विषम करें... अथवा साधुओं को समाधि हो ऐसा सोचकर इससे विपरीत भी करें... तथा पवन आनेवाली वसति