Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 526 2-3-31 (539) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पांचवीं भावना कही गई है। इस तरह सम्यक्तया काया से स्पर्श करने से सर्वथा मैथुन से निवृत्ति रुप चतुर्थ महाव्रत का आराधन एवं पालन होता है। टीका-अनुवाद : 3. चौथे महाव्रत की पांच भावना इस प्रकार है... स्त्री संबंधित कथा साधु न कहे... स्त्रियों के मनोहर इंद्रिय याने अंगोपांगों को साधु कामराग की दृष्टि से न देखे... पूर्व काल में स्त्रियों के साथ की हुई कामक्रीडाओं का स्मरण साधु न करें..... साधु प्रमाण से अधिक एवं सरस-प्रणीत भोजन न करें... स्त्री पशु एवं नपुंसको से रहित वसति = उपाश्रय में ही साधु निवास करे... इत्यादि... . // 539 // 5. सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। भोग की प्रवृत्ति से मोह कर्म को उत्तेजना मिलती है। इससे आत्मा कर्मबन्ध से आबद्ध होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। अतः साधु को अब्रह्मचर्य अर्थात् विषय-भोग से सर्वथा निवृत्त होना चाहिए। मैथुन कर्म का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। क्योंकि इसका त्याग करके वह मोह कर्म की गांठ से छूटने का, मुक्त होने का प्रयत्न करता है। इसलिए साधक न तो स्वयं विषय-भोग का सेवन करे, न दूसरे व्यक्ति को विषय-भोग की ओर प्रवृत्त करे और उस ओर प्रवृत्त व्यक्ति का समर्थन भी न करे। इस तरह साधु प्रतिज्ञा करता है कि- हे भगवन् ! में गुरु एवं आत्मा साक्षी से मैथुन का त्याग-प्रत्याख्यान करता हूं एवं पूर्वकाल में किये हुए मैथुन की निन्दा एवं गर्हणा करता हूं। अब चौथे महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थ महाव्रत की 5 भावनाओं का उल्लेख किया गया है- 1. स्त्रियों की काम विषयक कथा नहीं करना, 2. विकार दृष्टि से स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों का अवलोकन . नहीं करना, 3. पूर्व में भोगे हुए विषय-भोगों का स्मरण नहीं करना, 4. प्रमाण से अधिक तथा सरस आहार का आसेवन नहीं करना और 5. स्त्री, पशु एवं नपुंसक से युक्त स्थान में नहीं रहना।