Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-2 (446) 253 सः भिक्षुः वा० स: यत्० ग्रामं वा यावत् राज० अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत्। महती विहारभूमी महती विचारभूमी० सुलभः यत्र पीठ०, सुलभः प्रासुक:०, नो यत्र बहवः श्रमण उपागमिष्यन्ति वा अल्पाकीर्णा वृत्तिः, यावत् राजधानी वा, ततः संयतः एव वर्षावासं उपलीयेत // 446 / / III सूत्रार्थ : वर्षा वास करने वाले साधु या साध्वी को ग्राम नगर, यावत् राजधानी की स्थिति को भली-भांति जानना चाहिए। जिस ग्राम, नगर यावत् राजधानी में एकान्त स्वाध्याय करने के लिए कोई विशाल भूमि न हो, नगर से बाहर मल-मूत्रादि के त्यागने की भी कोई विशाल भूमि न हो, और पीठ-फलक-शय्या-संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, एवं प्रासुक और निर्दोष आहार का मिलना भी सुलभ न हो और बहुत से शाक्यादि भिक्षु यावत् भिखारी लोग आए हुए हों जिस से ग्रामादि में भीड़-भाड़ बहुत हो और साधु साध्वी को सुखपूर्वक स्थान से निकलना और प्रवेश करना कठिन हो तथा स्वाध्याय आदि भी न हो सकता हो तो ऐसे व्यामादि में साधु वर्षाकाल व्यतीत. न करे। जिस ग्राम या नगरादि में विहार और विचार के लिए अर्थात् स्वाध्याय और मल-मूत्रादि का त्याग करने के लिए विशाल भूमि हो, पीठ-फलकादि की सुलभता हो, निर्दोष आहार पाणी भी पर्याप्त मिलता हो और शाक्यादि भिक्षु या भिखारी लोग भी आए हुए न हों एवं उनकी अधिक भीड़-भाड़ भी न हो तो ऐसे गांव या शहर आदि में साधु साध्वी वर्षाकाल व्यतीत कर सकता है। * IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- इस गांव या राजधानी में बडी स्वाध्यायभूमी नहि है, तथा विचारभूमी याने स्थंडिलभूमी बडी नहि है... तथा यहां पीठ, फलक (पाट), शय्या, संस्तारक आदि सुलभ नहि है, तथा यहां प्रसुक एवं एषणीय आहारादि सुलभ नहि है... अर्थात् आहारादि जो उद्गमादि दोष रहित होने चाहिये वैसे एषणीय आहारादि सुलभ नहि है... तथा जहां गांव-नगर आदि में बहोत सारे श्रमण ब्राह्मण, कृपण, वनीपक आदि आये हुए हैं, और अन्य आनेवाले हैं इस प्रकार वहां वृत्ति याने रहना, जैसे कि- भिक्षाटन (गोचरी), स्वाध्याय, ध्यान, स्थंडिल भूमी जाना इत्यादि कार्यो में, लोगों के आवागमन की अधिकता से आकीर्ण याने गीच हो... इस स्थिति में साधुओं को वहां प्रवेश-निष्क्रमण याने आने जाने में यावत् देहचिंता आदि क्रिया निरुपद्रव न हो, ऐसा जानकर साधु वहां वर्षावास चातुर्मास न करें... इसी प्रकार व्यत्यय याने इस से विपरीत सत्र को इस से विपरीत स्वरुप से जानीयेगा...