Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 174 2-1-2-1-2 (399) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : वह साधु या साध्वी उपाश्रय के विषय में यह जाने कि गृहस्थ ने साधु के लिए उपाश्रय के छोटे द्वार को बडा बनाया है या बडे द्वार को छोटा कर दिया है, तथा भीतर से कोई पदार्थ बाहर निकाल दिया है तो इस प्रकार के उपाश्रय में जब तक वह अपुरुषान्तरकृत एवं अनासेवित है तब तक वहां कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो गया है, तो उसमें स्थानादि कर सकता है। ___ इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए उदक से उत्पन्न होने वाले कन्द मूल, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरी का एक स्थान से स्थानान्तर में संक्रमण करता है, या भीतर से किसी पदार्थ को बाहर निकालता है, तो इस प्रकार का उपाश्रय भी अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित हो तो साधु के लिए अकल्पनीय है। और यदि पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि कर सकता है। इसी भांति यदि गृहस्थ साधु के लिए पीढ (चौकी) फलक और ऊखल आदि पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान में रखता है या भीतर से बाहर निकालता है, तो इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित है तो साधु उसमें कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो चुका है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि क्रियाएं कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय असंयत ऐसे गृहस्थ ने साधुओं के लिये जो लघु द्वारावाला था वह बडे द्वारवाला कीया है... तब ऐसे अन्य पुरुषों ने नहि ग्रहण कीये हुए उपाश्रय में स्थानादि न करें... किंतु यदि अन्य पुरुष ने उस मकान को ग्रहण कीया हो एवं उपयोग में लिया हो तब स्थानादि करें... यहां इन दोनों सूत्र में उत्तरगुण कहे गये हैं... अतः ऐसे दोषवाला होने पर भी यदि अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो स्थान शय्या निषद्यादि करना कल्पता है... और यदि वह उपाश्रय मूलगुण के दोषवाला हो तब अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो भी स्थानादि करना कल्पता नहि है... मूलगुण के दोष इस प्रकार हैं... पृष्ठवंशादि से साधुओं के लिये बनाये हुओ उपाश्रय में वसति = निवास करने पर मूलगुण में दोष लगता है... वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय गृहस्थ ने साधुओं के लिये बनाते वख्त पानी में उगे हुए कंद आदि को स्थानांतर में संक्रमित कीया है..या उखेडकर बाहार निकाल दीया है, तब ऐसे प्रकार के एवं अन्य पुरुष ने ग्रहण न कीये हो तो. वहां साधु