Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 318 2-1-4-1-4 (469) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ! हे श्रावक ! हे धर्मप्रिय ! इत्यादि वचन बोलें... इसी प्रकार स्त्री के अधिकार में भी जानीयेगा... अर्थात् बाकी के दोनों सूत्र प्रतिषेध एवं विधि के स्वरुप से स्वयं हि जानीयेगा... सुगम होने से यहां टीकाकार आचार्यजी ने टीका नहि बनाइ है... अब और भी "न बोलने योग्य" भाषा का स्वरुप कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को किसी भी गृहस्थ के प्रति हलके एवं अवज्ञापूर्ण शब्दों का प्रयोग करने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि किसी पुरुष या स्त्री को पुकारने पर वह नहीं सुनता हो तो साधु उन्हें निम्न श्रेणी के सम्बोधनों से सम्बोधित न करे, . उन्हें हे गोलक, मूर्ख आदि अलंकारों से विभूषित न करे। क्योंकि, इससे सुनने वाले के मन को आघात लगता है और साधु की असभ्यता एवं अशिष्टता प्रकट होती है। इसलिए साधु को ऐसी सदोष भाषा नहीं बोलनी चाहिए। यदि कभी कोई बुलाने पर नहीं सुन रहा हो तो उसे मधुर, कोमल एवं प्रियकारी सम्बोधनों से पुकारना चाहिए, उसे हे धर्मप्रिय, देवानुप्रिय, आर्य, श्रावक अथवा हे धर्मप्रिये, देवानुप्रिये. श्राविका आदि शब्दों से सम्बोधित करना चाहिए। इससे सुननेवाले मनुष्य के मन में हर्ष एवं उल्लास पैदा होता है और साधु के प्रति भी उसकी श्रद्धा बढ़ती है। अतः साधु-साध्वी को सदा मधुर, निर्दोष एवं कोमल भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 469 // से भिक्खू वा नो एवं वइज्जा- नभोदेवित्ति वा गज्जदेवित्ति वा, विज्जुदेवित्ति वा, पवुट्ठदेवित्ति वा निवुट्ठदेवित्तए वा, पडउ वा वासं मा वा पडउ, निप्फज्जउ वा सस्सं, मा वा नि०, विभाउ वा रयणी मा वा विभाउ, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयउ मा वा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जा। पण्णवं से भिक्खू वा अंतलियखेत्ति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा संमुच्छिए वा निवइए वा, वओ वइज्जा वुट्टबलाहगेत्ति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं . जं सव्वद्वेहिं समिए सहिए सया जइज्जासि त्तिबेमि // 469 //