Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-1 (421) 213 दुर्लभ कठिन है। क्योंकि साधु के लिए कहीं उपाश्रय में छत डाली हुई होती है, कहीं लेपापोत्ती की हुई होती है, कहीं संस्तारक के लिए ऊंची-नीची भूमि को समतल किया गया होता है और कहीं द्वार बन्द करने के लिए दरवाजे आदि लगाए हुए होते हैं, इत्यादि दोषों के कारण शुद्ध निर्दोष उपाश्रय का मिलना कठिन है। और दूसरी यह बात भी है कि शय्यातर का आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। अतः यदि साधु उसका आहार लेते हैं तो उन्हें दोष लगता है और उनके नहीं लेने से बहुत से शय्यातर गृहस्थ रुष्ट हो जाते हैं। यदि कभी उक्त दोषों से रहित उपाश्रय मिल भी जाए, फिर भी साधु की आवश्यक क्रियाओं के योग्य उपाश्रय का मिलना कठिन है। क्योंकि- साधु विहारचर्या वाले भी हैं, तथा शय्या-संस्तारक और पिंडपात की शुद्ध गवेषणा करने वाले भी है। उक्त क्रियाओं के लिये योग्य उपाश्रय मिलना और भी कठिन है। इस प्रकार कितने ही सरल-निष्कपट एवं मोक्ष पथ के गामी भिक्षु उपाश्रय के दोष बतला देते हैं। कुछ गृहस्थ मुनि के लिये ही मकान बनाते हैं, और फिर यथा अवसर आगन्तुक मुनि से छल युक्त वार्तालाप करते हैं। वे साधु से कहते हैं कि 'यह मकान हमने अपने लिये बनाया है, आपस में बांट लिया है, परिभोग में ले लिया है, परन्तु अब नापसंद होने के कारण बहुत पहले से वैसे ही खाली छोड़ रखा है। अतः पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस उपाश्रय में ठहर सकते हैं।' परन्तु विचक्षण मुनि इस प्रकार के छल में न फंसे, तथा सदोष उपाश्रय में ठहरने से सर्वथा इन्कार कर दे। गृहस्थों के पूछने पर जो मुनि इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता हैं, उसके संबन्ध में शिष्य प्रश्न करता है किहे भगवन् ! क्या वह सम्यक् कथन करता है ? सूत्रकार उत्तर देते हैं कि- हां, वह सम्यक् कथन करता है। IV टीका-अनुवाद : यहां कभी कोइक साधु वसति (उपाश्रय) की अन्वेषणा (शोध) के लिये या भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर कोइक श्रद्धालु गृहस्थ ऐसा कहे कि- "इस गांव में आपको बहोत सारा आहारादि प्राप्त होगा अतः यहां वसति (उपाश्रय) ग्रहण करके आपको यहां रहना (ठहरना) ठीक रहेगा..." इत्यादि तब वह साधु गृहस्थ को कहे कि- यहां केवल (मात्र) प्रासुक आहारादि हि दुर्लभ है, ऐसा नहि है किंतु प्रासुक आहारादि प्राप्त होने पर, जहां बैठकर भोजन कर शकें ऐसी आधाकर्मादि रहित उपाश्रय (वसति) भी दुर्लभ है, और उंछ याने छादन-लेपनादि उत्तर गुण के दोष रहित भी नहि है... और साधुओं को तो मूलगुणदोष एवं उत्तरगुणदोष रहित हि उपाश्रय एषणीय होता है, यहां वह वसति दुर्लभ है... मूल एवं उत्तर गुण इस प्रकार हैं...