Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-2 (488) 379 घर के भीतर से सचित्त जल को किसी अन्य भाजन में डाल कर साधु को देने लगा हो तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। कदाचित्-असावधानी से वह जल ले लिया गया हो तो शीघ्र ही उस जल को वापिस कर दे। यदि गृहस्थ उसे वापिस न ले तो फिर वह उस जल युक्त पात्र को लेकर स्निग्ध भूमि में अथवा अन्य किसी योग्य स्थान में जल को परठ दे और पात्र को एकान्त स्थान में रख दे, किन्तु जब तक उस पात्र से जल के बिन्दु टपकते रहें या वह पात्र गीला रहे तब तक उसे धूप में न सुखावे / जब यह जान ले कि मेरा यह पात्र अब विगत जल और स्नेह से रहित हो गया है तब उसे पोंछ सकता है और धूप में भी सुखा सकता है। संयमशील साधु या साध्वी जब आहार लेने के लिए गृहस्थ के घर में जाए तो अपने पात्र साथ लेकर जाए। इसी तरह स्थंडिल भूमि और स्वाध्याय भूमि में जाते समय भी पात्र को साथ लेकर जाए और यामानुयाम विहार करते समय भी पात्र को साथ में ही रखे। और न्यूनाधिक वर्षा के समय की विधि का वर्णन वस्त्रैषणा अध्ययन के दूसरे उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए। यही साधु या साध्वी का समय आचार है। प्रत्येक साधु साध्वी को इसके परिपालन करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि पिंड के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर जल की याचना करे... उस वख्त कभी ऐसा हो कि- कोइ गृहस्थ अनजान में या दुश्मनता के कारण से तथा अनुकंपा से या विना सोचे समझे अपने घर के बरतन में रहा हुआ सचित्त जल उस साधु को देवे... तब वह साधु ऐसे उस सचित्त जल को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे... अथवा अनिच्छा से या अनुपयोग से सचित्त जलका ग्रहण हो गया हो, तो तत्काल उस गृहस्थदाता के बरतन में वापस लौटा दे... यदि वह गृहस्थ साधु को दे दीये गये उस जल को वापस लेना न चाहे तब वह साधु उस सचित्त जल को उस जल के समान जाति के जलवाले कूवे आदि में परिष्ठापन की विधि से परठ देवे... यदि वैसे जलवाले कुवे आदि प्राप्त न हो तब उस सचित्त जल को अन्य छायावाले गर्ता (खडे) आदि में परठ देवे... और यदि उस साधु के पास अन्य पात्र हो तो उस सचित्त जलवाले पात्रं को निर्जन स्थान में छोड देवे... तथा वह साधु उस सचित्त जलवाले पात्र को मांजे नहि याने साफ न करें, कपडे से पोंछे नहि... किंतु यदि वह पात्र सुख जावे तब पोंछ दे... तथा वह साधु किसी गृहस्थ के घर में आहार आदि के लिये जावे तो अपने पात्र को