Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 350 2-1-5-1-6 (480) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अंदर की और उपभोग कीया हुआ या बाहार की और गृहस्थ ने उपभोग कीया अर्थात् वापरे हुओ वस्त्र को हि ग्रहण करुंगा... यह तीसरी प्रतिमा... तथा गृहस्थ ने अंदर की और या बाहार की और वापरा हुआ, तथा त्याग करने के लिये निकाले हुए वस्त्र को हि ग्रहण करुंगा... यह चौथी प्रतिमा... यह चारों सूत्र का सारांश-अर्थ है... इन चार प्रतिमाओं का शेष विधि पिडैषणा की तरह जानीयेगा... __ अब सूत्रकार महर्षि कहतें हैं कि- जब साधु पूर्व कही गइ चार प्रतिमा में से कोई भी एक वटैषणा से वस्त्र की गवेषणा करनेवाले साधु को गृहस्थ कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप एक महिने के बाद, या दश दिन के बाद या पांच दिन के बाद आइयेगा, तब मैं आपको वस्त्र आदि दूंगा... किंतु साधु उस गृहस्थ के उन वचनों का स्वीकार न करें... इत्यादि... शेष सुगम है... यावत् अभी इस वख्त यदि देना चाहो तो दीजीयेगा... इस प्रकार कहनेवाले साधु को वह गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! अभी आप जाइयेगा... और थोडे दिनों के बाद आप आओगे तब मैं आपको वस्त्र आदि दूंगा... साधु गृहस्थ के ऐसे इन वचनों का भी स्वीकार न करें... और कहे कि- यदि आप देना चाहो तो अभी दीजीयेगा... इस प्रकार फिर से बोलते हुए साधु को देखकर वह गृहस्थ घर का नायक अपने परिवार के बहिन आदि को बुलाकर कहे किवस्त्र लाओ, और कहे कि- अभी हि यह वस्त्र इन साधुओं को दे दीजीये... और हम अपने लिये अन्य वस्त्र प्राणीओं का उपर्मदन करके बनाएंगे... इत्यादि... किंतु ऐसे इस प्रकार के वस्त्र भी साधु पश्चात्कर्म दोष के भय से प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... तथा कदाचित् वह गृहस्थ ऐसा कहे कि- स्नान आदि से सुगंधि द्रव्य के द्वारा स्नान आदि से घर्षण आदि क्रिया करके आपको वस्त्र आदि दूंगा... यह बात सुनकर साधु म. निषेध करे और कहे कि- इस प्रकार के वस्त्र हमे नहि कल्पता... यदि निषेध करने पर भी उपरोक्त क्रिया करके वस्त्रादि दे तब साधु उन वस्त्रादि को ग्रहण न करें... इसी प्रकार जल आदि से वस्त्र धोना इत्यादि सूत्र भी स्वयं जानीयेगा.... तथा वस्त्रादि की याचना करने पर वह गृहस्थ कहे कि- कंदमूल-सब्जी आदि वस्त्र से दूर करके आपको वस्त्र दूंगा... इस स्थिति में भी साधु पूर्व की तरह निषेध करे और वस्त्रादि ग्रहण न करें... तथा वस्त्र की यचना करने पर वह गृहस्थ कदाचित् देवे तब वस्त्र दे रहे ऐसे उस गृहस्थ को साधु कहे कि- आपके इस वस्त्र का मैं अंदर-बाहार प्रत्युपेक्षण याने अवलोकन करुंगा... बिना अवलोकन कीये उस वस्त्रादि को साधु ग्रहण न करें... क्योंकि- केवली परमात्मा कहतें हैं कि- बिना प्रत्युपेक्षण कीये वस्त्रादि ग्रहण करने में कर्मबंध होता है... जैसे कि- उन वस्त्रादि में कभी (कदाचित्) कुंडल आदि सुवर्ण के आभूषण बंधे (रखे) हुए हो, या