Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 154 2-1-1-11-1 (394) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना ? किसी एक भिक्षु ने उनके पास से आहार लेकर मन में विचार किया कि यह मनोज्ञ आहार में ही खाऊंगा। इस प्रकार विचार कर उस मनोज्ञ आहार की अच्छी तरह छिपा कर, रोगी भिक्षु को अन्य आहार दिखला कर कहे कि यह आहार भिक्षुओं ने आप के लिए दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, क्योंकि यह रुक्ष है, तिक्त है, कटुक है, कसैला है, खट्टा है, मधुर है, अतः रोग की वृद्धि करने वाला है, आपको इससे कुछ भी लाभ नहीं होगा। जो भिक्षु इस प्रकार कपट चर्या करता है, वह मातृस्थान का स्पर्श करता है, अतः भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो उसे वैसा ही दिखलावे-अर्थात् तिक्त को तिक्त, कटुक को कटुक, कषाय को कषाय, खट्टे, को खट्टा और मीठे को मीठा बतलावे। तथा जिस प्रकार रोगी को शांति प्राप्त हो उसी प्रकार पथ्य आहार के द्वारा उसकी सेवा-शुश्रूषा करे। IV टीका-अनुवाद : भिक्षाके लिये जो घुमतें हैं वे भिक्षुक... साधु... कितनेक साधु सांभोगिक या असांभोगिक वहां रहे हुए या यामानुयाम विहार करनेवाले साधुओं के पास जाकर कहे किआपके साथ यदि कोइ साधु ग्लान हो, तो उनके लिये यह मनोज्ञ हो, यदि ग्लान साधु इस आहारादि को न वापरे, तो आप हि वापरीयेगा... इत्यादि... तब वह साधु उस साधु के हाथों से ग्लान साधु के लिये आहारादि लेकर उपाश्रय की और जाता है उस वख्त उसको विचार आता है कि- यह आहारादि मैं अकेला हि वापरुं... ऐसा सोचकर अच्छे अच्छे आहारादि को छुपाकर उस ग्लान साधु के पास जाकर आहारादि दिखाकर कहे कि- आपको वायु का रोग है अतः यह आहारादि आपके लिये अपथ्य है ऐसा कहकर उनके आगे रखे... और कहे कि- यह आहारादि आपके लिये दुसरे साधुने दीया है, किंतु रुक्ष है, अथवा तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर इत्यादि कहकर कहे कि- इसमें से कुछ भी आपके लिये अनुकूल नहि है... इस प्रकार वह साधु माया-स्थान का स्पर्श करता है, किंतु ऐसा नहि करना चाहिये... ___अब, क्या कहना चाहिये, वह कहते हैं... ग्लान साधु को आहारादि जैसा है वैसा कहकर दिखलाये... यहां सारांश यह है कि- माया - कपटका त्याग करके आहारादि जैसा है वैसा यथावस्थित हि कहे... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में रोगी साधु की निष्कपट भाव से सेवा-शुश्रूषा करने का आदेश दिया गया है। यदि किसी साधु ने किसी रोगी साधु के लिए मनोज्ञ आहार दिया हो तो सेवा करने