Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 300 2-1-3-3-5 (465) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चढ़ना चाहिए और न विस्तृत एवं गहरे पानी में प्रवेश करना चाहिए, परन्तु राग-द्वेष से रहित होकर अपने मार्ग पर चलते रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रसंग साधु की साधुता की उत्कृष्ट साधना का परिचायक है। वह अभय का देवता न किसी को भय देता है और न किसी से भयभीत होता है। क्योंकि, प्राणी जगत को अभयदान देने वाला साधक कभी भय ग्रस्त नहीं होता। भय उसी प्राणी के मन में पनपता है, जो दूसरों को भय देता है या जिसकी साधना में, अहिंसा में अभी पूर्णता नहीं आई है। क्योंकि, भय एवं अहिंसा का परस्पर विरोध है। मानव जीवन में जितना-जितना अहिंसा का विकास होता है उतना ही भय का ह्रास होता है और जब जीवन में पूर्ण अहिंसा साकार रूप में प्रकट हो जाती है तो भय का भी पूर्णतः नाश हो जाता है। अहिंसा निर्भयता की निशानी है। ___ यह वर्णन पूर्ण अहिंसक साधक को ध्यान में रखकर किया गया है। सामान्यतः सभी साधु हिंसा के त्यागी होते हैं, फिर भी सबकी साधना के स्तर में कुछ अन्तर रहता है। सब के जीवन का समान रूप से विकास नहीं होता। इसी अपेक्षा से वृत्तिकार ने प्रस्तुत सत्र को जिनकल्पी मुनि की साधना के लिए बताया है। क्योंकि स्थविर कल्पी मुनि की यदि कभी समाधि भंग होती हो तो हिंसक जीवों से युक्त मार्ग का त्याग करके अन्य मार्ग से भी आजा सकता है। आगम में भी लिखा है कि यदि मार्ग में हिंसक प्राणी बैठे हों या घूम-फिर रहे हों तो मुनि को वह मार्ग छोड़ देना चाहिए। वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र जो जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध बताया है। हिंसक प्राणियों से भयभीत न होने के प्रसंग में तो यह युक्ति संगत प्रतीत होता है। परन्तु, अटवी में चोरों द्वारा उपकरण छीनने के प्रसंग में जिनकल्पी की कल्पना कैसे घटित होगी ? क्योंकि उनके पास वस्त्र एवं पात्र आदि तो होते ही नहीं, अतः उनके लूटने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होगा। इसका समाधान यह है कि आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सूत्रकार ने एक, दो और तीन चादर रखने वाले जिनकल्पी मुनि का भी वर्णन किया है, अतः कुछ जिनकल्पी मुनियों के उत्कृष्ट 12 उपकरण स्वीकार किए है। अतः इस दृष्टि से इस साधना को जिनकल्पी मुनि की साधना मानना युक्ति संगत ही प्रतीत होता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 465 // से भिक्खू वा० गामा० दू० अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छिज्जा, ते णं आमोसगा एवं वइज्जा-आउसंतो ! समणा ! आहर एवं वत्थं वा, देहि निविखवाहि, तं