Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-6 (370) 97 अगणिजीवे हिंसिजा। अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्ठा एस पडण्णा, एस हेऊ एस कारणे एसुवएसें जं तहप्पगारं असणं वा अगणिनिक्खित्तं अफासुयं नो पडि० एयं० सामग्गियं / / 370 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत्० अशनं वा अग्निनिक्षिप्तं तथा प्रकारं अशनं वा अप्रासुकं न० केवली ब्रुयात्-आदानमेतत् / असंयतः भिक्षु प्रतिज्ञया उत्सिचन् वा निसिचन् वा आमार्जयन् वा प्रमार्जयन् वा अवतारयन् वा अपवर्तयन् वा अग्निजीवान् हिंस्यात् / अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष: हेतुः एतत् कारणं अयमुपदेश: यत् तथाप्रकारं अशनं वा, अग्निनिक्षिप्तं अप्रासुकं न प्रति० एतत् सामण्यम् // 370 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गए साधु और साध्वी को ज्ञात होवे कि- अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है तो ऐसे अशनादि को अप्रासुक जानकर व्यहण न करे। केवली भगवन्त का यह कथन है कि- ऐसा आहार ग्रहण करने से कर्मबंधन होता है। ऐसा आहार कर्मबंधन का कारण है। असंयमी गृहस्थ अग्नि पर रखे हुए आहार में से थोड़ा आहार साधु के लिये निकालतें हैं या पुनः डाल रहे हैं, हाथ पोंछतें हैं, तथा विशेष रूप से साफकर रहे हैं। पात्र को नीचे उतार रहे है या चढा रहे हैं। इसी कारण से निग्रंथ मुनिओंकी यह ही प्रतिज्ञा है, यह ही हेतु है, यह ही कारण है, यह ही उपदेश है कि- अग्नि पर रखे हुए उस आहार को हिंसाका कारण जानकर ग्रहण न करे। साधु और साध्वी का यह आचार है। उसका पालन करते हुए संयम में यतनावान् बनना चाहिये | 370 / / .IV टीका-अनुवाद : ___ करने पर देखे कि- चारों प्रकार का आहारादि अग्नि के उपर रखा हुआ है, तब ऐसा अग्नि-ज्वाला के संपर्क वाला आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... केवलज्ञानी प्रभुजी कहतें हैं कि- इस स्थिति में कर्मबंध स्वरुप आदान रहा हुआ है... जैसे कि- गृहस्थ साधुओं के लिये वहां अग्नि के उपर रहे हुए आहारादि को निकाले या पुनःवापस डालें... तथा एक बार हाथ आदि से साफ करे, और विशेष प्रकार से साफ करे तथा नीचे उतारे या तिरच्छा करे... ऐसा करने से अग्निजीवों की हिंसा होती है... . अब कहतें हैं कि- साधुओं की पूर्व कही गई यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है, और यह उपदेश है... कि- तथा प्रकार के अग्नि से संबद्ध आहारादि अग्नि के उपर रहे हुए हैं अतः अप्रासुक है और अनेषणीय है... ऐसा जानकर प्राप्त होने पर भी उन आहारादि