Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-6 (364) 83 भिक्षुकों के साथ नहीं। अतः इसका तात्पर्य यह है कि- गृहस्थ ने जो आहार दिया वह अन्य मत के साधुओं को सम्बोधित करके नहीं, प्रत्युत उक्त साधु के साथ के अन्य साम्भोगिक साधुओं को सम्बोधित करके दिया है। अतः वह अपने साथ के अन्य मुनियों के पास जाकर उन्हें वह आहार दिखाए और उनके साथ या उन सबका समविभाग करके उस आहार को खाए। इस तरह यह सारा प्रसंग अपने समान आचार वाले मुनियों के लिए ही घटित होता है। वृत्तिकार एवं टब्बाकार दोनों के अभिमतों में टब्बाकार का अभिमत आगम सम्मत प्रतीत होता है। ‘गच्छेज्जा' और 'आउसंतो समणा' शब्दा टब्बाकार के अभिमत को ही पुष्ट कहते हैं। यदि अन्यमत के साधुओं के साथ ही आहार करना होता तो वे सब वहीं गृहस्थ के द्वार पर ही उपस्थित थे, अतः कहीं अन्यत्र जाकर उन्हें दिखाने का कोई प्रसंग उपस्थित नहीं होता और साधु की मर्यादा है कि- वह गृहस्थ के घर से ग्रहण किया गया आहार अपने सांभोगिक बड़े साधुओं को दिखाकर सभी को आहार करने की प्रार्थना करके फिर आहार ग्रहण करे और यह बात गच्छेज्जा' शब्द से स्पष्ट होती है और 'आयुष्मन् श्रमणो' यह शब्द भी सांभोगिक साधुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, ऐसा इस पाठ से स्पष्ट परिलक्षित होता है। "पुरा पेहाए तस्सट्ठाए परो असणं वा 4 आहट्ट दलएज्जा अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा एस पतिन्ना, एस हेउ, एस उवएसो जं णो तेसिं संलोए सपड़िदुवारे चिट्ठज्जा से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा 2 अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा / ' इसका तात्पर्य यह है कि- केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। (अन्य मत के भिक्षुओं और भिखारियों को लांघकर गृहस्थ के घर में जाने तथा उनके सामने खड़े रहने को)। क्योंकि- यदि उनके सामने खड़े हुए मुनि को गृहस्थ देखेगा तो वह उसे वहां आहार आदि पदार्थ लाकर देगा। अतः उनके सामने खड़ा न होने में यह कारण रहा हुआ है तथा यह पूर्वोपदिष्ट है कि- साधु उनके सामने खड़ा न रहे। इससे अनेक दोष लगने की संभावना है। अब गृहस्थ के घर में प्रवेश के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 364 // से भिक्खू वा. से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुटव-पविढे पेहाए नो तं उवाइक्कम्म पविसिज वा ओभासिज्ज वा, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा आणावायमसंलोए चिट्ठिजा, अह पुणेवं जाणिजा-पडिसेहिए वा दिण्णे वा तओ तंमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज वा ओभासिज्ज वा, एवं एयं सामग्गियं / / 364 //