Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 110 2-1-1-7-6 (376) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी साधु ग्रहण कर सकता है। जैसे-द्राक्षा का पानी, राख से मांजे हुए बर्तनों का धोया हुआ पानी आदि भी प्रासुक एवं ग्राह्य है। इससे स्पष्ट हो गया कि साधु शस्त्र परिणत प्रासुक जल ग्रहण कर सकता है। यदि निर्दोष बर्तन आदि का धोया हुआ या गर्म पानी प्राप्त होता हो तो साधु उसे स्वीकार कर सकता है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र ||6|| || 376 // से भिक्खू वा से जं पुण पाणगं जाणिज्जा, अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए उद्धट्ट, निक्खिते सिया, असंजए भिक्खुपडियाए उदउल्लेण वा ससिणिद्धेण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीओदगेण वा संभोइत्ता आहट्ट दलइजा, तहप्पगारं पाणगजायं अफासुयं, एयं खलु सामग्गियं || 376 || II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पानकं जानीयात्-अनन्तरहितायां पृथिव्यां यावत् सन्तानके उदृत्त्य उदृत्त्य निक्षिप्तं स्यात्, असंयतः साधुप्रतिज्ञया उदकाइँण वा, सस्निग्धेन वा, सकषायेण वा मात्रेण वा शीतोदकेन वा मिश्रयित्वा आहत्य दद्यात्, तथाप्रकारं पानकजातं अप्रासुकं, एतत् खलु सामग्यम् || 376 || III सूत्रार्थ : जल के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी जल के सम्बन्ध में यदि यह जान ले कि गृहस्थ ने प्रासुक जल को सचित्त पृथ्वी से लेकर मकड़ी आदि के जालों से युक्त पदार्थ पर रखा है या उसने उसे अन्य पदार्थ से युक्त बर्तन से निकाल कर रखा है या वह उन हाथों से दे रहा है जिससे सचित्त जल टपक रहा है या उसके हाथ जल से भीगे हुए हैं ऐसे हाथों से, या सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन से या प्रासुक जल के साथ सचित्त जल मिलाकर देवे तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण न करे। यही संयमशील मुनि का समय आचार है। ऐसा में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. यदि ऐसा जाने कि- यह जल सचित्त पृथ्वीकाय आदि में यावत् करोडीये (मकडी) के जाले में या अन्य बरतन में से निकाल निकालकर रखा हुआ है, तथा वह गृहस्थ साधु को देने के लिये जल से भीगे हाथों से या सचित्त पृथ्वी आदि से सहित पात्र (बरतन) से या ठंडा (कच्चा) जल मीलाकर के लाकर दे, तब ऐसा जल अप्रासुक