Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-3 (367) 93 संसृष्ट है तब तथाप्रकार के हाथ आदि से दिये जा रहे आहारादि को प्रासुक एवं एषणीय मानकर साधु ग्रहण करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि साधु गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह देखे कि- गृहपति या उसकी पत्नी या पुत्र या पुत्री या दास-दासी भोजन कर रहा है; यदि वह गृहपति या उसका पुत्र है तो हे आयुष्मन् ! और यदि वह स्त्री है तो हे बहन !, भगिनी / आदि सम्बोधन करके पूछे कि- क्या तुम मुझे आहार दोगे ? इस पर यदि वह व्यक्ति शीतल (सचित्त)जल से या स्वल्प-उष्ण(मिश्र) जल से अपने हाथ धोकर आहार देने का प्रयत्न करे, तो उसे ऐसा करते हुए देखकर कहे कि- इस तरह सचित्त एवं मिश्र जल से हाथ धोकर आहार न दें, बिना हाथ धोए ही दे दें। इस पर भी वह न माने और उस जल से हाथ धोकर आहार दे तो उस आहार को अप्रासुक समझकर साधु उसे ग्रहण न करे। . यदि गृहस्थ ने साधु को आहार देने के लिए सचित्त जल से हाथ नहीं धोए हैं, परन्तु अपने कार्यवश उसने हाथ धोए हैं और अब वह उन गीले हाथों से या गीले पात्र से आहार दे रहा है तब भी साधु उस आहार को ग्रहण न करे। इसी तरह सचित्त रज, मिट्टी, खार आदि से हाथ या पात्र संसृष्ट हों तो भी उन हाथों या पात्र से साधु आहार ग्रहण न करे। यदि किसी व्यक्ति ने सचित्त जल से हाथ या पात्र नहीं धोए हैं और उसके हाथ या पात्र गीले भी नहीं है या अन्य सचित्त पदार्थों से संसृष्ट नहीं हैं, तो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहार को साधु ग्रहण कर सकता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'उदउल्ले और ससिणिद्धे' शब्द में इतना ही अंतर है कि- पानी से धोने के बाद जिस हाथ से जल की बूंदें टपकती हों उसे जलार्द्र कहते हैं और जिससे बून्द नहीं टपकती हों परन्तु गीला हो उसे स्निग्ध कहते हैं। आचाराङ्ग की कुछ प्रतियों में 'अफासुयं' के साथ 'अणेसणिज्जं' शब्द भी मिलता है, वृत्तिकार ने भी अप्रासुक और अनेषणीय आहार लेने का निषेध किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- प्रासुक शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निर्जीव / अतः अप्रासुक क आ सजीव पदार्थ। अतः सचित्त जल से हाथ या पात्र धोने मात्र से पदार्थ अप्रासुक कैसे हो जाते हैं ? अथह इसका समाधान यह है कि- प्रस्तुत प्रकरण में इस शब्द का प्रयोग अकल्पनीय अर्थ में हुआ है और उसके समान होने के कारण इसे भी अप्रासुक कहा गया है जैसे राजप्रश्नीयसूत्र में देवकृत पुष्पदृष्टि के अचित्त पुष्पों के लिए जलज एवं स्थलज शब्दों का प्रयोग किया गया