Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 190 2-1-2-2-2 (407) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी उल्लेख नहीं किया है और उसके पीछे किसी तरह का विशेषण नहीं होने से यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि वह मूत्र सामान्य है या विशिष्ट ? मूत्र सामान्य की अपेक्षा से गौ मूत्र का भी ग्रहण हो सकता है और उसे वैदिक एवं लौकिक परम्परा में भी अशुद्ध नहीं माना है। इसके अतिरिक्त 'मोय' शब्द के संस्कृत में मोक, मोच और मोद तीन रूप बनते हैं। इस अपेक्षा से 'मोय समायारे' की संस्कृत छाया 'मोद समाचारः' बनेगी और इसका अर्थ होगा-प्रसन्नता पूर्वक स्नान का त्याग करने वाला। अर्थात्- ज्ञान के पवित्र सागर में गोते लगाने वाला मुनि / महाभारत आदि ग्रन्थों में भी मुनि के लिए बाह्य स्नान के स्थान में अन्तर स्नान को महत्व दिया गया है। क्योंकि पानी से केवल शरीर की शुद्धि होती है, आत्मा की शुद्धि नहीं होती। आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान एवं तप-त्याग का स्नान ही आवश्यक माना गया है। इस तरह 'मोय' का संस्कृत रूप मोद मान लेने पर अर्थ में किसी तरह की असंगति नहीं रहती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी 'मोय' शब्द का 'मोद' के अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि जैसे पक्षी स्वेच्छा पूर्वक आकाश में उड़ाने भरता है, उसी तरह काम-भोग का परित्याग करके लघुभूत बना हुआ मुनि 'मोयमाणा-मोदमाना' अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक देश में विचरण करे। इस तरह 'मोय' शब्द का प्रसन्नता अर्थ ही अधिक संगत एवं उपयुक्त प्रतीत होता है। .. इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 407 // आयणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संव०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विसवरुवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा, उवक्खडिज्ज वा उवकरिज्ज वा, तं च भिक्खु अभिकंखिज्जा भुत्तए वा पायए वा वियट्टित्तए वा, अह भि० जं नो तह० // 407 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिभिः सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मनः स्वार्थाय विसपरूप: भोजनजात: उपस्कृत: (संस्कृतः) स्यात् / अथ पधात् भिक्षुप्रतिज्ञया अथनं वा, संस्कृर्यात् वा उपस्कुर्यात् वा, तच्च भिक्षुः अभिकाङ्केत भोक्तुं वा पातुं वा विवर्तितुं वा, अथ भि० यत् न तथा० // 407 / / III सूत्रार्थ : गृहस्थों के साथ निवास करते हुए भिक्षु के लिए यह भी एक कर्म बन्धन का कारण हो सकता है, जैसे कि- गृहस्थ अपने लिये नाना प्रकार का भोजन तैयार करके फिर साधु