Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-4 (347) 43 'संखडि' शब्द का अर्थ होता है-'संखण्ड्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडिः' अर्थात् जहां पर अनेक जीवों के प्राणों का नाश करके भोजन तैयार किया जाता है, उसे 'संखडि' कहते हैं। वर्तमान में इसे भोजनशाला कहते हैं। इसका गूढ अर्थ महोत्सव एवं विवाह आदि के समय किया जानेवाला सामूहिक जिमनवार से लिया जाता है। ऐसे स्थानों पर शुद्ध, निर्दोष, एषणीय एवं सात्त्विक आहार उपलब्ध होना कठिन है, इसलिए साधु के लिए वहां आहार को जाने का निषेध किया गया है। उस समय गांव एवं नगरों में तो संखडी होती ही थी। इसके अतिरिक्त खेट-धूल के कोटवाले स्थान, कुत्सित नगर, मडंब-जिस गांव के बाद 5 मील पर गांव बसे हुए हों, पतन-जहां पर सब दिशाओं से आकर माल बेचा जाता हो (व्यापारिक मण्डी) आकर-जहां ताम्बे, लोहे आदि की खान हों, द्रोणमुख-जहां जल और स्थल प्रदेश का मेल होता हो, नैगमव्यापारिक बस्ती, आश्रम, सनिवेश-सराय (धर्मशाला) छावनी आदि। ये स्थान ऐतिहासिक गवेषण की दृष्टि से बडा महत्त्व रखते हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'आयाणमेयं' का अर्थ है-कर्म बन्ध का हेतु / कुछ प्रतियों में 'आयाणमेयं' के स्थान पर 'आययणमेयं' ऐसा पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ है-यह कार्य दोषों का स्थान है, जहां इतना स्मरण रखना चाहिए कि- यह वर्णन उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष को लेकर किया गया है, जघन्य-सामान्य अपवाद पक्ष को लेकर नहीं। संखडी में जाने से कौन से दोष लग सकते है, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि तृतीय उद्देशक में कहेंगे... // प्रथम चूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने द्वितीय: उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के