Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 298 2-1-3-3-4 (464) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगम में कहा गया है कि जिस भाषा के प्रयोग से जीवों की हिंसा होती हो वैसी सत्य भाषा भी साधु को नहीं बोलनी चाहिए। और यह भी बताया गया है कि साधु को सत्य एवं व्यवहार भाषा बोलनी चाहिए और मिश्र एवं असत्य भाषा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। साधु दूसरे महाव्रत में असत्य भाषण का सर्वथा त्याग करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे प्रसंगों पर मौन रहना चाहिए। चाहे उस पर कितना भी कष्ट क्यों न आए, फिर भी जानते हुए भी उसे यह नहीं कहना चाहिए कि मैं जानता हूं और झूठ भी नहीं बोलना चाहिए। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 464 // से भिक्खू वा० गामा० दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चित्तचिल्लडं वियालं पडि० पेहाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिज्जा, नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिज्जा, नो रुक्खंसि वा दूरुहिज्जा, नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, नो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्थं वा कंखिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिंया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा उवगरणपडियाए संपिंडिया गच्छिज्ज, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा जाव समाहीए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 464 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य गां वा व्यालं वा प्रतिपथि प्रेक्ष्य यावत् चित्तकं तदपत्यं वा व्यालं प्रेक्ष्य न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत्, न मार्गात् उन्मार्गं सङ्क्रामेत्, न गहनं वा वनं वा दुग्णं वा अनुप्रविशेत्, न वृक्षं दूरुहेत्, न महति-महालये उदके कायां प्रविशेत्, न वृत्तिं वा शरणं वा सेनां वा शस्त्रं वा काक्षेत, अल्पोत्सुक: यावत् समाधिना तत: संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य अटवीप्राय: दीर्घोऽध्वा स्यात् सः तं पुन: अध्वानं जानीयात्- अस्मिन् खलु अध्वनि बहवः आमोषका: उपकरण-प्रतिज्ञया संपिण्डिताः गच्छेयुः, न तेभ्य: भीत: उन्मार्गेण गच्छेत् यावत् समाधिना, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 464 //