Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-3 (400) 175 स्थान, शय्या, निषद्यादि न करें, यदि अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो साधु स्थानादि करे... ___ इसी प्रकार अचित्तनिःसारणसूत्र को भी जानीयेगा... यहां अस आदि जीवों की विराधना का दोष लगता है, यह यहां भाव है... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ ने साधु के निमित्त उपाश्रय के दरवाजे छोटे-बड़े किए है, या कन्द, मूल, वनस्पति आदि को हटाकर या कांट-छांट कर उपाश्रय को ठहरने योग्य बनाया है तथा उसमें स्थित तख्त आदि को भीतर से बाहर या बाहर से भीतर रखा है और इस तरह की क्रियाएं करने के बाद उस उपाश्रय में गृहस्थ ने निवास किया हो या अपने सामायिक संवर आदि धार्मिक क्रियाएं करने के काम में लिया हो तो साधु उस मकान में ठहर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि जो मकान मूल से साधु के लिए बनाया हो, उस मकान में साधु किसी भी स्थिति-परिस्थिति में नहीं ठहर सकता। परन्तु, जो स्थान मूल से साधु के लिए नहीं बनाया गया है, केवल उसकी मुरम्मत की गई है या उसके कमरों या दरवाजों आदि को छोटाई-बड़ाई में कुछ परिवर्तन किया गया है या उसका अभिनव संस्कार किया गया है तो वह पुरुषान्तर होने के बाद साधु के लिए कल्पनीय है। . इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 400 // से भिक्खू वा० से जं० तं जहा- खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, नन्नत्थ आगाढानागाढेहिं कारणेहिं वा नो चेइज्जा / से आहच्च वा पहोइज्ज वा, नो तत्थ ऊसढं पकरेज्जा, तं जहा- उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूर्व वा सोणियं वा अण्णयरं वा सरीरावयवं वा, केवली बूया-आयाणमेयं, से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलिज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अण्णयरं वा कायंसि इंदियजालं लूसिज्जा वा पाणि अभिहणिज्ज वा जाव ववरोविज्ज वा, अथ भिक्खूणं पुटवोवट्ठा, जं तहप्पगारं उवस्सए अंतलियखजाए न ठाणंसि वा, घेइज्जा / / 400 // II. संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् तद्-यथा-स्कन्धे वा मधे वा माले वा प्रासादे वा हर्ये