Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-5 (410) 195 % 3D I सूत्र // 5 // // 410 // से भिक्खु वा० से जं० तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उव० नो ठाणं वा / से भिक्खू वा० से जं० तणपुं० पलाल0 अप्पंडे जाव० चेइज्जा // 410 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् तृणपुजेषु वा पलालपुजेषु वा सअण्डे यावत् ससन्तानके तथाप्रकारे उपा० न स्थानं वा / सः भिक्षुः वा० स: यत् तृणपुजेषु वा पलालपुज्नेषु वा अल्पाण्डे वा यावत् अल्प सन्तानके वा० चेतयेत् // 410 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी उपाश्रय के संबन्ध में यह जाने कि यदि तृण एवं पलाल का समूह अण्डों से युक्त है, अथवा मकडी के जालों से युक्त है तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि यह उपर्युक्त प्रकार का उपाश्रय अण्डों से रहित यावत् मकडी के जालों से रहित है. तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रियायें कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : यह सूत्र सुगम है... और इससे विपरीत सूत्र भी सुगम है, किंतु यहां “अल्प' शब्द अभाव-वाचक है * अब वसति के परित्याग के जो उद्देशक का अर्थाधिकार कहा गया है, वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि- तृण और पलाल (घास) के पुंजों से निर्मित उपाश्रय अण्डे आदि से युक्त हो तो साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्ग (ध्यान) ही करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि उस युग में साधु गांवों में अधिक भ्रमण करते थे। क्योंकि, घास-फूस की झोंपड़िएं (मकान) प्रायः गांवों में ही मिलती है। और इस पाठ से यह भी ध्वनित होता है कि मकान के जिस भाग में साधु को कायोत्सर्ग आदि क्रियायें करनी हों, उस भाग में अण्डा एवं त्रस जीव आदि न हों। दशवैकालिक सूत्र में भी बताया गया है कि कायोत्सर्ग करते समय या अन्य समय में मुनि के शरीर पर या वस्त्रपात्र आदि पर ऊपर से अस जीव गिर गया हो तो मुनि उसे बिना किसी तरह का कष्ट पहुंचाए