Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 260 2-1-3-1-6 (450) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तब वे पोकार करे कि- “यह चोर है, यह हमारे शत्रुओं के गांव से आया हुआ चर पुरुष है" इत्यादि कहकर वाणी से आक्रोश करे, दंड-लकडी से मारे, यावत् प्राणांत कष्ट देकर मार डाले... तथा वस्त्र-पत्रादि लुट ले, या तोड-फोड करे, या सब कुछ लुटकर साधु को भगा दे... अतः साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञादि इस प्रकार है कि- साधु ऐसे वैसे म्लेच्छ-अनार्य क्षेत्र में विहार न करें... किंतु अनार्य-क्षेत्र का त्याग करके आर्यक्षेत्र में हि संयमी होकर एक गांव से दुसरे गांव में विहार करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को ऐसे प्रान्तों में विचरना चाहिए जहां आर्य एवं धर्म-निष्ठ भद्र लोग रहते हों। परन्तु, सीमान्त पर जो अनार्य देश हैं, जहां पर चोर-डाकू, भील, अनार्य एवं म्लेच्छ लोग रहते हों उन देशों में नहीं जाना चाहिए। क्योंकि, वे लोग दुर्लभ बोधि होते हैं अर्थात् धर्म और आर्यत्व को जल्दी ग्रहण नहीं कर पाते। वे कुसमय में जागृत रहते हैं अर्थात् जिस समय सभ्य एवं सज्जन लोग शयन करते हैं, उस समय उनका धन लुटने के लिए वे लोग जागते रहते हैं और कुसमय में ही भोजन करते हैं तथा उन्हें भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक नहीं होता है। यदि ऐसे अनार्य व्यक्तियों के निवास स्थानों की ओर साधु चला जाए तो वे उसे चोर, गुप्तचर आदि समझकर कष्ट देंगे, मारेंगे-पीटेंगे तथा उसके उपकरण एवं वस्त्र आदि छीन लेंगे या तोड़-फोड़कर दूर फेंक देंगे। इसलिए मुनि को ऐसे प्रदेशों की ओर विहार नहीं करना चाहिए। __ इससे स्पष्ट होता है कि- वर्तमान युग की तरह उस समय भी एक-दूसरे देश की सीमाओं पर तथा अपने राज्य की आन्तरिक स्थिति का तथा चोर-डाकुओं के गुप्त स्थानों का पता लगाने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की जाती थी। ' - प्रस्तुत सूत्र में ऐसे स्थानों पर जाने का निषेध साधु के लिए ही किया गया है, न कि सम्यग्दृष्टि एवं श्रावक के लिए। सम्यग्दृष्टि एवं श्रावक अनुकूल साधनों के प्राप्त होने पर वहां जाकर उन्हें संस्कारित एवं सभ्य बनाने का प्रयत्न कर सकते हैं। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 450 // से भिक्खू० दुइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दो रज्जाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा सइ लाढे विहाराए संथ० जण नो विहारवडियाए० केवली बूया-आयाणमेयं, ते णं बाला तं चेव जाव गमणाए तओ