Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-3 (463) 297 है ? इत्यादि प्रश्न-सूत्र भी पूर्ववत् जानीयेगा... इसी प्रकार- कितना मार्ग है ? इत्यादि भी पूर्ववत् स्वयं हि जानीयेगा... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि विहार करते समय कोई पथिक पूछे कि हे मुनि ! आपने इधर से किसी मृग, गाय आदि पशु-पक्षी या मनुष्य आदि को जाते हुए देखा है ? इसी तरह जलचर एवं वनस्पतिकाय या अग्नि आदि के सम्बन्ध में भी पूछे और कहे कि यदि आपने इन्हें देखा है तो बताइए वे कहां हैं या किस ओर गए हैं ? उसके ऐसा पूछने पर साधु को मौन रहना चाहिए। क्योंकि, यदि साधु उसे उनका सही पता बता देता है तो उसके द्वारा उन प्राणियों की हिंसा होना सम्भव है। अतः पूर्ण अहिंसक साधु को प्राणीमात्र के हित की भावना को ध्यान में रखते हुए उस समय मौन रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'जाणं वा नो जाणंति वइज्जा' के अर्थ में दो विचार-धाराएं हमारे सामने हैं। परन्तु, इस बात में सभी विचारक एकमत हैं कि साधु को ऐसी भाषा का बिल्कुल प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे अनेक प्राणियों की हिंसा होती हो। इस दया भावना को ध्यान में रखते हुए वृत्तिकार उक्त पदों का यह अर्थ करते हैं- साधु जानते हुए भी यह कहे कि मैं नहीं जानता। इसमें साधु की भावना असत्य बोलने की नहीं, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करके जीवों की रक्षा करने की भावना है। यह भी तो स्पष्ट है कि- प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'वा' शब्द अपि (भी) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है और 'नो' शब्द 'वइज्जा' क्रिया से संबद्ध है। इस तरह इसका अर्थ हुआ कि . साधु जानते हुए भी यह नहीं कहे कि मैं जानता हूँ। आगमों में प्रायः 'नो' शब्द का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- 'न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा' अर्थात् कहीं पर भी स्नेह न करे। इस सूत्र में 'न' का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। इसके अतिरिक्त आगम में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनमें 'नो' शब्द को क्रिया के साथ ही सम्बद्ध माना है। इसलिए प्रस्तत प्रसंग में 'नो' शब्द को ‘वइज्जा' क्रिया से सम्बद्ध मानना ही युक्ति-युक्त प्रतीत होता है। यदि इस तरह से 'नो' शब्द को क्रिया के साथ जोड़कर अर्थ नहीं करेंगे तो फिर मौन रखने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाएगा। फिर तो साधु सीधा ही यह कहकर आगे बढ़ जाएगा कि मैं नहीं जानता। परन्तु, आगम में जो मौन रखने को कहा गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि साध को जानते हुए भी यह नहीं कहना चाहिए कि मैं नहीं जानता। साधु को जीवों की हिंसा एवं असत्य भाषा दोनों से बचना चाहिए।