Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 444 2-2-4-5-1 (505) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० अथ वा एककानि रूपाणि पश्यति, तद्यथा- ग्रथितानि वा वेष्टिमानि वा पूरिमाणि वा संघातिमानि वा काष्ठकर्माणि वा पुस्तककर्माणि वा चित्रकर्माणि वा मणिकर्माणि वा दन्तकर्माणि वा पत्रच्छेद्यकर्माणि वा विविधानि वा वेष्टिमानि अन्यतराणि वा तथा० विरूपसपाणि चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, एवं ज्ञातव्यं यथाशब्दप्रतिमा सर्वा वादिवर्जा रूपप्रतिमा अपि // 505 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी फूलों से निष्पन्न स्वस्तिकादि, वस्त्रों से निष्पन्न पुत्तलिकादि, पुरिम निष्पन्न पुरुषाकृति और संघात निष्पन्न चोलकादि, इसी प्रकार काष्ठ से निर्मित पदार्थ, पुस्तके, चित्र, मणियों से, हाथी दांत से, पत्रों से तथा बहुत से पदार्थो से निर्मित सुन्दर एवं कुरूप पदार्थों के विविध रुपों को देखने के लिए जाने का मन से संकल्प भी न करे। शेष वर्णन शब्द अध्ययन की तरह जानना चाहिए। केवल वाद्ययन्त्र को छोड़कर अन्य वर्णन शब्द प्रतिज्ञा के समान ही रूप-प्रतिमा में भी जानना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु या भाव साध्वीजी म. कभी पर्यटन याने आवागमन करते वख्त जब विभिन्न प्रकार के कितनेक रूप देखे... जैसे कि- ग्रथित याने पुष्प आदि से बनाये हुए स्वस्तिक आदि तथा वेष्टिम याने वस्त्र आदि से बनाये हुए पुतले ढींगला-ढींगली आदि... पुरिम याने जो कुछ अंदर भर कर पुरुष आदि की आकृति बनाइ हो, तथा संघातिम याने चोलक आदि... काष्ठकर्म याने रथ आदि... पुस्तकर्म याने लेप्य आदि... चित्रकर्म याने चित्रकला... मणिकर्म याने विभिन्न मणि-माणेक आदि से बनाये हुए स्वस्तिक आदि... तथा दंतकर्म याने हाथी आदि के दांत से बनाये हुए पुतले-प्रतिमादि... पत्रच्छेद्यकर्म याने वृक्ष के पत्ते के उपर विभिन्न आकृति आदि... इत्यादि विविध प्रकार के रूप को देखने की इच्छा से साधु वहां न जावें... अर्थात् इन रूप-चित्रों को देखने लिये जाने का मन याने इच्छा भी न करें... इसी प्रकार शब्द-सप्तैकक के सूत्र का भावार्थ चार प्रकार के वाजिंत्र से रहित शेष सभी सत्रों का भावार्थ यहां रूप-प्रतिमा में भी समझे... किंतु शब्द की जगह रूप शब्द का प्रयोग करें... और यहां दोष भी पूर्ववत् जानना चाहिए।