Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 364 2-1-5-2-3 (485) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अन्य मुनि को यदि उस वस्त्र की आवश्यकता हो तो उसे दे दे। अन्यथा स्वयं उसका उपभोग करे। यह नियम जैसे एक साधु के लिए है उसी तरह अनेक साधुओं के लिए भी यही विधि समझनी चाहिए। किसी साधु से ऐसा जानकर कि प्रातिहारिक रूप लिया हुआ वस्त्र थोड़ा सा फंट जाने पर या दूषित होने पर देने वाला मुनि वापिस नहीं लेता है, इस तरह वह वस्त्र लेने वाले मुनि का ही हो जाता है। इस भावना को मन में रख कर कोई भी साधु प्रातिहारिक वस्र ग्रहण न करे। यदि कोई साधु इस भावना से वस्र ग्रहण करता है, तो उसे माया का दोष लगता है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 485 // से भि० नो वण्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करिज्जा विवण्णाई न वण्णमंताई करिज्जा, अण्णं वा वत्थं लभिस्सामित्ति कट्ट नो अण्णमण्णस्स दिज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थपरिणामं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा- आउसो० ! समभिकंखसि मे वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय, परिढविज्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मण्णह, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जाव अप्पुस्सुए, तओ संजय मेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया गच्छेज्जा, नो तेसिं भीओ उम्मेग्गेणं गच्छिज्जा जाव गामा० दूइज्जिज्जा। से भि० दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा- आउसं० ! आहरेयं वत्थं देहि निक्खिवाहि जहे रियाए नाणत्तं वत्थपडियाए, एयं खलु० सया जइज्जासि तिबेमि // 485 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० न वर्णवन्ति वस्त्राणि विवर्णानि कुर्यात्, विवर्णानि च न वर्णवन्ति कुर्यात्, अन्यं वा वस्त्रं लप्स्ये इति कृत्वा न अन्योऽन्यस्मै दद्यात्, न प्रामित्यं कुर्यात्, न वस्त्रेण वस्त्रपरिणामं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य एवं वदेत्- हे आयुष्मन् श्रमण !