Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ इप्प 164 2-1-1-11-4 (397) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन = ___ उक्त अभियह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य मुनियों के साथ-जिन्होंने अभिग्रह नहीं किया है या पीछे से ग्रहण किया है, कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस संबंध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 397 / / इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अण्णयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वइज्जामिच्छापडिवण्णा खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवण्णे, जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एवं पडिमं पडिवज्जित्ता णं विहरामि, सव्वे वि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया अण्णुण्ण समाहीए, एवं च णं विहरंति, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं // 397 // II संस्कृत-छाया : इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां सप्तानां पानैषणानां अन्यतरां प्रतिमां प्रतिपद्यमान: न एवं वदेत् - मिथ्याप्रतिपन्नाः खलु एते भगवन्तः अहं एकः सम्यक् प्रतिपन्न: ये इमे भगवन्त: एताः प्रतिमाः प्रतिपद्य विहरन्ति, यश्च अहं अस्मि, एतां प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि। सर्वेऽपि ते तु जिनाज्ञया उपस्थिताः अन्योन्यसमाधिना, एवं च विहरन्ति, एतत् खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुण्याः वा सामग्यम् // 397 // III सूत्रार्थ : इन सातों पिण्डैषणाओं तथा पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रह को ग्रहण करता हुआ साधु फिर इस प्रकार न कहे कि- ये सब अन्य साधु सम्यक्तया प्रतिमाओं को ग्रहण करने वाले नहीं हैं, केवल एक मैं ही सम्यक् प्रकार से प्रतिमा ग्रहण करने वाला हूं। परंतु उसे किस तरह बोलना चाहिए ? इस विषय में कहते हैं- ये सब साधु महाराज इन प्रतिमाओं को ग्रहण करके विचरते हैं। ये सब जिनाज्ञा में उद्यत हुए परस्पर समाधि पूर्वक विचरते हैं। इस तरह जो साधु साध्वी अहंभाव को नहीं रखता उसी में साधुत्व है और अहंकार नहीं रखना सम्यक् आचार है। IV टीका-अनुवाद : इस प्रकार इन सात पिंडैषणा एवं सात पानैषणा प्रतिमाओं में से अन्यतर कोइ भी प्रतिमा को स्वीकारनेवाला साधु ऐसा न कहे कि- यह अन्य साधु भगवंत अच्छी तरह से पिंडैषणा आदि अभिग्रहवाले नहि है, अर्थात् मिथ्या प्रकार से प्रतिमा स्वीकारी है, मैंने अकेलेने हि यह प्रतिमा अच्छी तरह से स्वीकारी है... क्योंकि- मैंने विशुद्ध पिडैषणा का अभिग्रह कीया है, इन्होने नहि कीया... इत्यादि... परंतु गच्छ से निकले हुए या गच्छ में रहे हुए साधु को