Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-2 (384) 129 वा पश्चात्संस्तुता: वा परिवसन्ति, तद्यथा-गृहपतिः वा यावत् कर्म० तथाप्रकाराणि फुलानि न पूर्वमेव भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा, केवली ब्रूयात्आदानमेतत्, पूर्वापेक्षया तस्य परः अर्थाय अशनं वा, उपकुर्यात् वा, पचेत् वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा यत् न तथाप्रकाराणि कुलानि पूर्वमेव भक्तार्थं वा पानार्थं वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा, स: तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य च अनापातमसंलोके तिष्ठेत् / सः तत्र कालेन अनुप्रविशेत्, अनुप्रविश्य च तत्र इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिक एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं एषित्वा आहारं आहारयेत्, स्यात् तस्य परः कालेन अनुप्रविष्टस्य आधाकर्मिकं अशनं वा उपकुर्यात् वा पचेत् वा, तं च एककिक: तुष्णीभावेन उपेक्षेत, आहृतमेव प्रत्याख्यास्यामि, इति मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात्, सः पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! भगिनि ! वा, न खलु मे (मह्यं) कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा भोक्तुं वा पातुं वा, मा उपकुरु मा पच / सः तस्य एवं वदतः परः आधाकर्मिकं अशनं वा, कत्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं० // 384 / / III सूत्रार्थ : . : शारीरिक अस्वस्थता एवं वार्धक्य के कारण एक ही स्थान पर रहने वाले या ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु या साध्वी के किसी गांव या राजधानी में, माता-पिता या श्वसुर आदि सम्बन्धिजन रहते हों या परिचित गृहपति, गृहपत्नी यावत् दास-दासी रहती हों तो इस प्रकार के कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार-पानी के लिए उनके घर में आए-जाए नहीं। केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म आने का मार्ग है। क्योंकि आहार के समय से पूर्व उसे अपने घर में आए हुए देखकर वह उसके लिए आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार एकत्रित करेगा या पकाएगा। अतः भिक्षुओं को पूर्वोपदिष्ट तीर्थंकर आदि का उपदेश है कि इस प्रकार के कुलों में भिक्षा के समय से पूर्व आहार-पानी के लिए आए-जाए नहीं, किन्तु वह साधु स्वजनादि के कुल को जानकर और जहां पर न कोई आता-जाता हो और न देखता हो, ऐसे एकान्त स्थान पर चला जाए। और जब भिक्षा का समय हो, तब ग्राम में प्रवेश करे और स्वजन आदि से भिन्न कुलों में सामुदानिक रूप से निर्दोष आहार का अन्वेषण करे। यदि कभी वह गृहस्थ भिक्षा के समय प्रविष्ट हुए भिक्षु के लिए भी आधाकर्मी आहार एकत्रित कर रहा हो या पका रहा हो और उसे देखकर भी कोई साधु इस भाव से मौन रहता हो कि जब यह लेकर आएगा तब इसका प्रतिषेध कर दूंगा तो मातृस्थान-माया का स्पर्श होता है। अतः साधु ऐसा न करे, अपितु वह देखते ही कह दे कि हे आयुष्मन् ! गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! मुझे आधाकर्मिक आहार-पानी खाना और पीना नही कल्पता है, अतः मेरे लिए इसको एकत्रित न करो और न पकाओ। उस भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ, आधाकर्म आहार को एकत्रित करता है या पकाता है, और उसे लाकर देता है तो इस प्रकार