Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 159 अथाऽपरा षष्ठी पिण्डैषणा - सः भिक्षुः वा प्रगृहीतमेव भोजनजातं जानीयात्, यत् च स्वार्थ प्रगृहीतं, यत् च परार्थं प्रगृहीतं, तत् पापर्यापन्नं तत् पाणिपर्यापन्नं प्रासुकं प्रति० षष्ठी पिण्डैषणा। अथाऽपरा सप्तमी पिण्डैषणा - स: भिक्षुः वा बहु उज्झितधर्मिकं भोजनजातं जानीयात्, यत् च अन्ये बहवः द्विपदचतुष्पद श्रमण ब्राह्मण अतिथिकृपण वनीपका: नाऽवकाङ्क्षन्ते, तथाप्रकारं उज्झितधर्मिकं भोजनजातं स्वयं वा याचेत, परः वा तस्मै दद्यात्, यावत् प्रति० सप्तमी पिण्डैषणा। इत्यादिकाः सप्त पिण्डैषणाः अथाऽपराः सप्त पानेषणाः तत्र खलु इयं प्रथमा पानैषणा - असंसृष्टं हस्तः असंसृष्टं मात्रम्, तच्चैव भणितव्यम्, नवरं चतुर्थ्यां नानात्वम् / सः भिक्षुः वा सः यत् पुन: पानकजातं जानीयात्, तद् - यथा - तिलोदकं वा अस्मिन् खलु प्रतिगृहीते अल्पं पश्चात्कर्म तथैव प्रतिगृह्णीयात् || 396 || III सूत्रार्थ : संयमशील साधु सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं को जाने / उन सातों में से पहली पिंडैषणा यह है कि अचित्त वस्तु से न हाथ लिप्त है और न पात्र ही लिप्त है, तथा प्रकार के अलिप्त हाथ और अलिप्त पात्र से अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करले, यह प्रथम पिन्डैषणा है, इसके अनन्तर दूसरी पिन्डैषणा यह है कि अचित वस्तु से हाथ और भाजन लिप्त हैं तो पूर्ववत् प्रासुक जान कर उसे ग्रहण करले, यह दूसरी पिण्डैषणा है। तदनन्तर तीसरी पिण्डैषणा कहते हैं- इस संसार या क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत पुरुष हैं उन में से कई एक श्रद्धालु-श्रद्धा वाले भी हैं, यथा गृहपति, गृहपत्नी यावत् उनके दास और दासी आदि रहते हैं। उनके वहां नानाविध बरतनों में भोजन रखा हुआ होता है यथा-थाल में, पिठर-बटलोही में, सरक (छाज जैसा) में, टोकरी में और मणिजटित महाघ पात्र में / फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो लिप्त नहीं है भाजन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, भाजन अलिप्त है, तब वह स्थविरकल्पी अथवा जिनकल्पी साधु प्रथम ही उसको देखकर कहे कि- हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! तू मुझ को इस अलिप्त हाथ से और लिप्त भाजन से हमारे पात्र वा हाथ में वस्तु लाकर दे दीजिये। तथाप्रकार के भोजन को स्वयं मांग ले अथवा बिना मांगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करें। यह तीसरी पिण्डैषणा है। अब चौथी पिण्डैषणा कहते हैंवह भिक्षु तुषरहित शाल्यादि को गावत् भुग्न शाल्यादि के चावल को जिसमें पश्चात्कर्म नहीं है, और न तुषादि गिराने पड़ते हैं, इस प्रकार का भोजन स्वयं मांग ले या बिना मांगे गृहस्थ दे तो प्रासुक जान कर ले लेवे, यह चौथी पिण्डैषणा है। पांचवीं पिण्डैषणा-गृहस्थ ने सचित्त