Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 392 2-1-7-1-4 (492) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : संयम निष्ठ साधु-साध्वी को सचित्त पृथ्वी या जीव जन्तु युक्त स्थान में नहि ठहरना चाहिए और जो उपाश्रय भूमि से ऊंचा, स्तम्भ आदि के ऊपर एवं विषम हो उसमें भी नहि ठहरना चाहिये और जो उपाश्रय कच्ची भीत पर स्थित हो और अस्थिर हो उसकी भी साधु याचना न करे। जो उपाश्रय स्तम्भ आदि पर अवस्थित और इसी प्रकार के अन्य किसी विषम स्थान में हो तो उसकी आज्ञा भी नहीं लेनी चाहिये। जो उपाश्रय गृहस्थों से युक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, एवं स्त्री, बालक और पशुओं से युक्त हो तथा उनके योग्य खान-पान की सामग्री से भरा हुआ हो तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में भी नहीं ठहरना चाहिए जिस उपाश्रय में जाने के मार्ग में स्त्रियें बैठी रहती हों या वे नाना प्रकार की शारीरिक चेष्टाये करती हों, ऐसे उपाश्रय में भी बुद्धिमान साधु ठहरने की आज्ञा न मांगे। जिस उपाश्रय में गृहपति यावत् उनकी दासिये परस्पर आक्रोश करती हों, या तैलादि की मालिश करती हों, स्नानादि करती हों या नग्न होकर बैठती हो इस प्रकार के उपाश्रय की भी साधु याचना न करे। और जो उपाश्रय चित्रों से आकीर्ण हो, वहां भी साधु न ठहरें... यह साधु और साध्वी का समय आचार है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : अवग्रहके विषयमें कि- जो अवग्रह सचित्त पृथ्वीकाय संबंधित हो, उस वसति के अवग्रहका ग्रहण न करें, तथा अंतरिक्ष याने आकाशमें रहे हुए उपाश्रय के अवग्रहका भी ग्रहण न करें इत्यादि... यहां यह सभी बातें इस उद्देशककी समाप्ति पर्यंत शय्या की तरह जानीयेगा... किंतु अवग्रहके नामसे कहीयेगा... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को कैसे मकान में ठहरना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए शय्या अध्ययन में वर्णित बातों को दोहराया है। जैसे- जो उपाश्रय अस्थिर दीवार एवं स्तम्भ पर बना हुआ हो, विषम स्थान पर हो, स्त्रियों से व्याप्त हो, जिसके आने-जाने के मार्ग में स्त्रियां बैठी हों, परस्पर तेल की मालिश कर रही हों, या अस्त-व्यस्त ढङ्ग से बैठी हों, तो ऐसे स्थान में साधु को नहीं ठहरना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को ऐसे स्थान में ठहरने का संकल्प नहीं करना चाहिए, कि- जहां जीवों की हिंसा एवं संयम की विराधना होती हो, तथैव . मन में विकार उत्पन्न होता हो और स्वाध्याय एवं ध्यान में विघ्न पड़ता हो। यह साधु का उत्सर्ग मार्ग है। परन्तु, यदि किसी गांव में संयम साधना के अनुकूल