Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-6 (426) 223 . - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् ससागारिकं साग्निकं सोदकं, न प्रज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय यावत् अनुचिन्तायै तथाप्रकारे उपाश्रये न स्था० // 425 // III सूत्रार्थ : जो उपाश्रय गृहस्थों से, अग्नि से और जल से युक्त हो, उसमें प्रज्ञावान् साधु या साध्वी को निष्क्रमण और प्रवेश नहीं करना चाहिए तथा वह उपाश्रय धर्मचिन्तन के लिए भी उपयुक्त नहीं है। अतः साधु को उसमें कायोत्सर्गादि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय (वसति) गृहस्थोंवाला है, अग्निवाला है, जलवाला है, तब ऐसी स्थिति में साधुओं को उपश्रय में प्रवेश करना, बाहार जाना, यावत् शरीर की छोटी-बडी चिंता, इत्यादि सुगम न हो, अतः ऐसे उपाश्रय में स्वाध्यायादि के लिये साधु स्थानादि न करें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को ऐसे उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थों का, विशेष करके साधुओं के स्थान में बहनों का एवं साध्वियों के स्थान में पुरुषों का आवागमन रहता हो और जिन स्थानों में अग्नि एवं पानी रहता हो। क्योंकि इन सब कारणों से साधु के मन में विकृति आ सकती है। इसलिए साधु को इन सब बातों से रहित स्थान में ठहरना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 426 // से भिक्खू वा० से जं० गाहावइकुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतुं पंथए पडिबद्धं वा, नो पण्णस्स जाव चिंताए, तह० उव० नो ठा0 || 426 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् गृहपतिकुलस्य मध्य-मध्येन गन्तुं, पन्थाः प्रतिबद्धः वा, न प्रज्ञस्य यावत् अनुचिन्तायै, तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानादि कुर्यात् // 426 // .