Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-3 (303) 105 III सूत्रार्थ: * आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि साधु या साध्वी यह देखे कि, गृहस्थ साधु को देने के लिए अत्युष्ण अशनादिक चतुर्विध आहार को शूर्प से, पंखे से, ताड़ पत्र से, शाखा से, साखा खंड से, मयूरपिच्छ से, मयूर पिच्छ के पंखे से, वस्त्र से, वस्त्र खंड से, हाथ से अथवा मुख से फूंक मार कर या पंखे आदि की हवा से ठंडा करके देने लगे तब वह भिक्षु उस गृहस्थ को कहे कि हे आयुष्मन्-गृहस्थ ! अथवा हे आयुष्मति बहिन ! तुम इस उष्ण आहार को इस प्रकार पंखे आदि से ठंडा मत करो। यदि तुम मुझे देना चाहती हो तो ऐसे ही दे दो। साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ, उसे पंखे आदि से ठंडा करके दे तो साधु उस आहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- अतिशय गरम ओदन (चावल) आदि साधुओं को देने के लिये गृहस्थ उन चावल आदि को ठंडा करने के लिये सूपडे से या पंखे से या मोरपींछ के पंखे से या पत्ते से या शाखा याने डाली से या शाखा के पल्लव से.तथा पीछे से या पीछे के समूह से या वस्त्र से या वस्त्र के (पालव) छेडे से या हाथ से या मुख से या ऐसी अन्य कोई भी वस्तु से (मुखवायु याने फुक से) ठंडा करे या वस्त्र आदि से वींजकर ठंडा करे, तब वह साधु पहेले से हि उपयोगवाला होकर जान ले एवं ऐसा करते हुए देखकर उन गृहस्थ को कहे कि- हे भाइ ! हे बहन ! ऐसा मत करो ! यदि आप यह आहारादि मुझे देना चाहते हो, तो ऐसा हि दीजीये... ... अब वह गृहस्थ उस प्रकार साधु के कहने पर भी सूपडे या यावत् मुख से पवन देकर एवं लाकर वह आहारादि साधु को दे, तब वह साधु अनेषणीय जानकर उस आहारादि को ग्रहण न करें.... अब पिंडाधिकार में हि एषणा-दोषों के विषय में कहते हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- यदि कोई गृहस्थ उष्ण पदार्थ को पंखे आदि से ठंडा करके देने का प्रयत्न करे तो साधु उसे ऐसा करने से इन्कार कर दे। वह स्पष्ट कहे कि हमारे लिए पंखे आदि से किसी भी पदार्थ को ठंडा करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर भी यदि वह गृहस्थ साधु की बात को न मानकर उक्त उष्ण पदार्थ को पंखे आदि से ठण्डा करके दे तो साधु उस आहार को ग्रहण करें। क्योंकि इस तरह की क्रिया से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है।