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प्रथम उद्देशक ]
[७
कहता है कि पुरुष के द्वारा रचे गये शास्त्र प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि वह सर्वश नहीं है, जैसे रथ्यापुरुष के वाक्य । मीमांसकों का यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि पुरुष भी अपने पुरुषार्थ से रागद्वेषादि दोषों को नष्ट करके सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है । वस्तुतः जीवात्मा और परमात्मा में कोई मौलिक भेद नहीं है । जीवात्मा कर्मपुद्गलों से बँधा हुआ है जबकि परमात्मा उनसे मुक्त है। जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुणों के विकास के द्वारा-प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा कर्मपुद्गलों के बन्धन तोड़ कर मुक्त हो सकता है। यही परमात्मा का स्वरूप है । अतएव पुरुष भी सर्वश हो सकता है। ऐसे सर्वज्ञ पुरुष के रचे हुए शास्त्र भी प्रमाणरूप होते हैं ।
। दूसरी बात पुरुष की असर्वज्ञता के कारण वेदों को अपौरुषेय बताने की बात भी युक्तियुक्त नहीं है । वेद वर्णात्मक हैं और वर्ण ताल्वादि स्थानों से बोले जाते हैं । पुरुष-शरीर के बिना तालु श्रादि स्थान से बोले जाने वाले वर्षों का उच्चारण ही सम्भव नहीं है अतः वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं होता । "सुयं मे" ( मैंने सुना ) यह कहकर सुधर्मस्वामी पौरुषेय आगम की प्रमाणता सिद्ध करते हैं।
साथ ही साथ इस पद से सुधर्मस्वामी अपना विनय-भाव प्रकट करते हैं। "मैं जो कुछ कह रहा हूँ उसमें मेरा कुछ नहीं है, यह सब भगवान् का ही है" यों स्वमनीषिका का परिहार करते हुए वे तीर्थकर देव के प्रति अपना विनय प्रदर्शित करते हैं।
तीसरी बात जो इस पद से प्रकट होती है-वह है आत्मा का कथञ्चित् नित्यानित्यत्व । "जिसने भगवान् के मुखारविन्द से यह सब साक्षात् सुना है वही मैं, तुम्हें यह कहता हूँ" यह बात आत्मा को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानने पर घटित नहीं हो सकती। एकान्त कूटस्थ नित्य अात्मा में "पहले सुनने वाला और बाद में सुनाने वाला" यह विभिन्न अवस्थाघटित नहीं हो सकती। विभिन्न अवस्था होने पर कूटस्थ नित्यता नहीं रह सकती है । इसी तरह आत्मा को क्षणविध्वंसी मानने पर भी यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि क्षणभङ्गवाद के अनुसार तो सुनने वाला आत्मा उसी क्षण नष्ट हो जाता है। वह सुनाने के लिए रुक नहीं सकता। जो सुनाने वाला आत्मा है उसने सुना नहीं है। इसलिए एकान्त अनित्यवाद में भी यह बात घटित नहीं होती। इससे यह सिद्ध होता है 'सुनने वाला प्रात्मा' और 'सुनाने वाला आत्मा' दोनों एक ही आत्म-द्रव्य की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। उन विभिन्न अवस्थाओं में भी एक अखण्ड आत्म-द्रव्य समानरूप से रहा हुआ है। उसीसे इस तरह की प्रतीति हो सकती है । इससे आत्म-द्रव्य का स्यानित्यानित्यत्व सूत्रकार ने सूचित किया है।
'पाउसं' इस पद से सूत्रकार ने अपने शिष्य को कोमल सम्बोधन किया है । हे आयुष्मन् !, यह संबोधन कितना प्रिय है ! इसके सुनने मात्र से हृदय में प्रसन्नता होती है । आयु सबको प्रिय है। इसलिए लोक में भी 'चिरायु हो' 'दीर्घजीवी हो' आदि श्राशीर्वाद प्रचलित हैं । एक दृष्टि से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ का आधार आयु ही है । दीर्घायु वाला व्यक्ति ही इनकी पाराधना कर सकता है। अतः 'आयुप्मन् !' यह संबोधन बड़ा ही सुन्दर और संगत है। इससे यह भी स्पष्ट मालूम होता है कि गुरु के हृदय में शिष्य के प्रति कितना वात्सल्य है और होना चाहिए ।
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