Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 16 2-1-1-1-3 (337) . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन औषध एवं फलों का प्रयोग करते रहे हैं और आज भी करते हैं। इसलिये पूर्ण अहिंसक साधु के लिये यह स्पष्ट कर दिया गया है कि- वह सचित्त औषध एवं फलों को ग्रहण नहीं करे। अब सूत्रकार आहार की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता का उल्लेख आगे के सूत्र में करेंगे... I . सूत्र || 3 || // 337 // से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई संभज्जियं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भजियं फासुयं एसणिजं जाव पडिगाहिज्जा / / 337 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् पृथुकं वा बहुरजः वा अर्धपक्वं वा चूर्णं वा तन्दुलं वा तन्दुलप्रलम्बं वा सकृत् आमर्दितं अप्रासुकं यावत् न प्रतिग्रहीयात् / सः भिक्षुः वा, यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् पृथुकं वा यावत् तन्दुलप्रलम्ब वा असकृत् पक्वं वा द्वि: त्रिः वा पक्वं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिग्रहीयात् // 337 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर शाली आदि धान्यों, तुषबहुल धान्यों और अग्नि द्वारा अर्धपक्व धान्यों, तथा मंथु चूर्ण एवं कण सहित एकबार भुने हुए अप्रासुक यावत् अनेषणीय पदार्थों को ग्रहण न करे, तथा वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ उपस्थित होने पर शाली आदि धान्य या उसका चूर्ण, जो कि- दो तीन बार या अनेक बार अग्नि से पका लिया गया है, ऐसा और एषणीय निर्दोष पदार्थ उपलब्ध होने पर साधु उसे स्वीकार कर ले। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-भिक्षु= साधु गृहस्थों के घर में आहारादि के लिये प्रवेश करने पर यह जाने कि- पृथुक याने नये शालि-ब्रीहि आदि को अग्नि के द्वारा जो लाज (धानी) बनाया हो, तुषादिवाला हो, तथा अग्नि से आधे पकाये हुए गेहूं-तिल आदि हो, तथा गेहूं आदि का चूर्ण हो तथा शालि व्रीहि आदि की कणिक हो या उनके पृथकादि आहार हो, यदि वे एक बार अग्नि से थोडे पकाने से अप्रासक और अनेषणीय हो तब ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु उन्हें ग्रहण न करें... किंतु इस से विपरीत हो तो उन्हे ग्रहण करें... जैसे कि- अनेक बार अग्नि