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वह तुम्हारी प्यास से ही पैदा हुआ है। वह तुम्हारी प्यास का ही देखा गया सपना है । तुम इतने प्यासे थे कि मान लिया। तुम इतने घबराये थे पानी के लिए कि जरा-सा सहारा मिल गया कि तुमने पानी की कल्पना कर ली। भूखा आदमी, कहते हैं, अगर पूर्णिमा के चांद को भी देखे तो उसे लगता है रोटी आकाश में तैर रही है। भूख प्रक्षेपित होती है।
मन की बीमारियां प्रक्षेपण हैं, प्रोजेक्शन हैं। शरीर की बीमारी का तो आधार है; मन की बीमारी निराधार है। एक बार तुम्हें ठीक-ठीक गणित दिखाई पड़ गया तो फिर ऐसा नहीं है कि मन की बीमारी का निदान होने के बाद तुम पूछोगे, अब औषधि क्या ? निदान ही औषधि है।
सुकरात का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : ज्ञान ही मुक्ति है।
जीसस की भी बड़ी प्रसिद्ध घोषणा है : सत्य को जान लो और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा। फिर ऐसा नहीं कि सत्य को जानने के बाद तुम्हें मुक्ति के लिए कोई उपाय करना पड़ेगा; जानते ही सत्य को, मुक्ति हो जाती है।
इसलिए तो महावीर ने यहां तक कहा है कि अगर तुम सत्य को जानने वाले की बात ठीक से सुन लो तो श्रवण से ही मुक्ति हो जाती है। इसलिए एक तीर्थ का नाम - श्रावक । सुन कर ही जो मुक्त हो जाता है, वह श्रावक है। जो सुन कर मुक्त नहीं होता और जिसे कुछ करना पड़ता है, वह साधु । मेरे हिसाब में साधु श्रावक से नीची स्थिति में है; ऊंची स्थिति में नहीं । सुन कर ही मुक्त न हो सका, कुछ करना भी पड़ा। उसका बोध प्रगाढ़ नहीं है। सुन कर ही न समझ सका, कुछ करना पड़ा, तब समझ में आया। समझ बहुत गहरी नहीं है। समझ गहरी होती तो सुन कर समझ लेता । समझ गहरी होती तो महावीर को देख कर समझ लेता। देखना काफी था । आंख खोल कर महावीर को देख ले, आंख खोल कर बुद्ध को देख ले या आंख खोल कर कृष्ण को देख ले -क्या बाकी रह जाता है ? खुली आंख कि सब साफ हो जाता है।
तो पहला सूत्र है : 'जब तक तृष्णा जीवित है— जो कि अविवेक की दशा है— तब तक हेय और उपादेय, त्याग और ग्रहण भी जीवित हैं, जो कि संसाररूपी वृक्ष का अंकुर हैं। '
संसार से न छूट सकोगे जब तक तृष्णा है। तृष्णा संसार है।
अब बड़ा मजा होता है, बिना समझे लोग संसार से छूटना चाहते हैं ! संसार से भी छूटना चाहते हैं, उसके पीछे भी कारण तृष्णा ही है-स्वर्ग का सुख मिलेगा, कि मोक्ष का परम आनंद बरसेगा, कि समाधि की गहन शांति की दशा में प्रवेश होगा ! यह सब तृष्णा है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: 'शांत होना है। ध्यान की कोई विधि बता दें कि हम शांत हो जायें।' उनसे मैं कहता हूं : शांत होना हो तो तृष्णा को जानो। ध्यान की विधि से तुम शांत न हो सकोगे। क्योंकि ध्यान की विधि भी करने तुम तृष्णा के कारण ही आये हो। शांत होना है - यह लोभ तुम्हें ले आया है। लोभ के कारण तुम ध्यान करोगे कैसे? जहां तृष्णा का अभाव, वहां ध्यान। फिर ध्यान करना नहीं पड़ता, ध्यान हो जाता है। जो करना पड़े, वह ध्यान ही नहीं। जो हो जाये, वही ध्यान है। जहां तृष्णा न रही, मन की तरंगें अपने-आप शांत हो जाती हैं।
ऐसा समझो कि हवा के झकोरों में, हवा के झोंकों में झील की लहर उठती है, झील की छाती पर लहरें उठती हैं, तुम चेष्टा करते हो एक-एक लहर को शांत करने की, तुम पागल हो जाओगे। हवा
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4